महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 89 श्लोक 14-26

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एकोननवतितम (89) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद

मुझमें कौन सी दुर्बलता है, किस तरह की आसक्ति है और कौन सी ऐसी बुराई है, जो अबतक दूर नहीं हुई है और किस कारण से मुझ पर दोष आता है? इन सब बातों का राजा को सदा विचार करते रहना चाहिये। कलतक मेरा जैसा बर्ताव रहा है, उसकी लोग प्रशंसा करते है या नहीं? इस बात का पता लगाने के लिये अपने विश्वासपात्र गुप्तचरों को पृथ्वीपर पर सब ओर घुमाते रहना चाहिये। उनके द्वारा यह भी पता लगाना चाहिये कि यदि अब से लोग मेरे बर्ताव को जान लें तो उसकी प्रशंसा करेंगे या नहीं। क्या बाहर के गाँवों में और समूचे राष्ट्र मे मेरा यश लोगों को अच्छा लगता है। युधिष्ठिर! जो धर्मज्ञ, धैर्यवान और संग्राम में कभी पीठ न दिखाने वाले शूरवीर है, जो राज्य में रहकर जीविका चलाते है अथवा राजा के आश्रित रहकर जीते है तथा जो मन्त्रिगण और तटस्थवर्ग के लोग है, वे सब तुम्हारी प्रशंसा करे या निंदा, तुम्हें सबका सत्कार ही करना चाहिये। तात! किसी का कोई भी काम सबको सर्वथा अच्छा ही लगे, यह सम्भव नहीं है, भरतन्नदन! सभी प्राणियों के शत्रु मित्र और मध्यस्थ होते है। युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो बाहुबल में एक समान है और गुणों में भी एक समान है, उनमें से कोई एक मनुष्य सबसे अधिक कैसे हो जाता है, जो अन्य सब मनुष्यों पर शासन करने लगता है। भीष्मजी ने कहा- राजन्! जैसे क्रोध में भरे हुए बडे बडे विषधर सर्प दूसरे छोटे सर्पों को खा जाते है, जिस प्रकार पैरों से चलने वाले प्राणी न चलने वाले प्राणियों का अपने उपभोग में लेते है और दाढवाले जन्तु बिना दाढवाले जीवों को अपना आहार बना लेते है ( उसी प्राकृतिक नियम के अनुसार बहुसंख्यक दुर्बल मनुष्यों पर एक सबल मनुष्य शासन करने लगता है)। युधिष्ठिर! इन सभी हिसंक जन्तुओं तथा शत्रु की ओर से राजा को सदा सावधान रहना चाहिये, क्योंकि असावधान होने पर ये गिद्ध पक्षियों के समान सहसा टूट पडते है। ऊँचे या नीचे भाव से माल खरीदने वाले और व्यापार के लिये दुर्गम प्रदेशों में विचरने वाले वैश्य तुम्हारें राज्य में कर के भारी भार से पीडित हो उद्विग्न तो नहीं होते है? किसान लोग अधिक लगान लिये जाने के कारण अत्यन्त कष्ट पाकर तुम्हारा राज्य छोडकर तो नहीं जा रहे है। क्योंकि किसान ही राजाओं का भार ढोते है और वे ही दूसरे लोगों का भी भरण पोषण करते है। इन्हीं के दिये हुए अन्न से देवता, पितर, मनुष्य, सर्प, राक्षस और पशु-पक्षी सबकी जीविका चलती है। भरतनन्दन! यह मैंने राजा के राष्ट्र के साथ किये जाने वाले बर्ताव का वर्णन किया। इसी से राजाओं की रक्षा होती है। पाण्डुकुमार! इसी विषय को लेकर मैं आगे की भी बात कहूँगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में राष्ट्र की रक्षाविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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