महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 90 श्लोक 1-17

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १४:३५, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

नवतितम (90) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
उतथ्य का मान्धाता का उपदेश- राजा के लिये धर्मपालन की आवश्यकता

भीष्मजी कहते है- राजन्!ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ अंगिरापुत्र उतथ्य ने युवनाश्व के पुत्र मान्धाता से प्रसन्नतापूर्वक जिन क्षत्रिय धर्मों का वर्णन किया था, उन्हें सुनो। युधिष्ठिर! ब्रह्मज्ञानियों में शिरोमणि उतथ्य ने जिस प्रकार उन्हें उपदेश दिया था, वह सब प्रसंग पूरा पूरा तुम्हें बता रहा हूँ, श्रवण करो। उतथ्य बोले- मान्धाता! राजा धर्म का पालन और प्रचार करने के लिये ही होता है, विषय-सुखों का उपभोग करने के लिये नहीं। तुम्हें यह जानना चाहिये कि राजा सम्पूर्ण जगत का रक्षक है। यदि राजा धर्माचरण करता है तो देवता बन जाता है, और यदि वह अधर्माचरण करता है तो नरक में ही गिरता है। सम्पूर्ण प्राणी धर्म के ही आधार पर स्थित है और धर्म राजा के उपर प्रतिष्ठित है। जो राजा अच्छी तरह धर्म का पालन और उसके अनुकूल शासन करता है वही दीर्घकाल तक इस पृथ्वी का स्वामी बना रहता है। परम धर्मात्मा और श्रीसम्पन्न राजा धर्म का साक्षात् स्वरूप कहलाता है। यदि वह धर्म का पालन नहीं करता तो लोग देवताओं की भी निन्दा करते है और वह धर्मात्मा नहीं, पापात्मा कहलाता है। जो अपने धर्म के पालन में तत्पर रहते है, उन्हीं से अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि होती देखी जाती है। सारा संसार उसी मंगलमय धर्म का अनुसरण करता है। जब पाप को रोका नहीं जाता, तब जगत में धार्मिक बर्ताव का उच्छेद हो जाता है और सब ओर महान अधर्म फैल जाता है, जिससे प्रजा को दिन रात भय बना रहता है। तात! यदि पाप की प्रवृति का निवारण न किया जाय तो यह मेरी वस्तु है, ऐसा कहना श्रेष्ठ पुरूषों के लिये असम्भव हो जाता है और उस समय कोई भी धार्मिक व्यवस्था टिकने नहीं पाती है। जब जगत में पाप का बल बढ जाता है, तब मनुष्यों के लिये अपनी स्त्री, अपने पशु और अपने खेत या घर का भी कुछ ठिकाना नहीं दिखायी देता। जब पाप को रोका नहीं जाता, तब देवता पूजा को नहीं जानते है, पितरों को स्वधा (श्राद्ध) का अनुभव नहीं होता है तथा अतिथियों की कहीं पूजा नहीं होती है। जब पाप का निवारण नहीं किया जाता है, तब ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने वाले द्विज वेदों का अध्ययन छोड देते है और ब्राह्मण यज्ञों का अनुष्ठान नहीं कर पाते है। महाराज! जब पाप का निवारण नहीं किया जाता है, तब बूढें जन्तुओं की भाँति मनुष्यों का मन घबराहट मे पडा रहता है। लोक और परलोक दोनों की दृष्टि में रखकर महर्षियों ने स्वयं ही राजा नामक एक महान शक्तिशाली मनुष्य की सृष्टि की। उन्होंने सोचा था कि यह साक्षात धर्मस्वरूप होगा। अतः जिसमें धर्म विराज रहा हो, उसी को राजा कहते है और जिसमें धर्म (वृष) का लय हो गया हो, उसे देवतालोग वृषल मानते है। वृष नाम है भगवान धर्म का। जो धर्म के विषय में अलम (बस) कह देता है, उसे देवता वृषल समझते है; अतः धर्म की सदा ही वृद्धि करनी चाहिये। धर्म की वृद्धि होने पर सदा समस्त प्राणियों का अभ्युदय होता है और उसका हास होने पर सबका हास हो जाता है; अतः धर्म का कभी लोप नहीं होने देना चाहिये।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।