महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 91 श्लोक 33-49

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एकनवतितम (91) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 33-49 का हिन्दी अनुवाद

जब राजा दुर्बल मनुष्यों को यथावश्यक वस्तुएँ देकर पीछे स्वयं भोजन करता है, तब व दुर्बल मनुष्य बलवान् हो जाते हैं। वह त्याग राजा का धर्म कहा गया है। जब राजा समूचे राष्ट्रकी रक्षा करता है, डाकू और लुटेरोंको मार भगाता है तथा संग्राममें विजयी होता है, तब वह सब राजाका धर्म कहा जाता है। प्रिय-से-प्रिय व्यक्ति भी यदि क्रिया अथवा वाणी द्वारा पाप करे तो राजा को चाहिये कि उसे भी क्षमा न करे अर्थात् .उसे भी यथायोग्य दण्ड दे। जो ऐसा बर्ताव है, वह राजा का धर्म कहलाता है। जब राजा व्यापारियों की पुत्र के समान रक्षा करता है और धर्मकी मर्यादा को भंग नहीं करता, तब वह भी राजा का धर्म कहलाता है। जब वह राग और द्वेष का अनादर करके पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञों द्वारा श्रद्धापूर्वक यजन करता है, तब वह राजा का धर्म कहा जाता है। जब वह दीन, अनाथ और वृद्धों के आँसू पोंछता है और इस बर्ताव द्वारा सब लोगोंके हृदय में हर्ष उत्पन्न करता है, तब उसका वह सद्भाव राजा का धर्म कहलाता है। वह जो मित्रों की वृद्धि, शत्रुओं का नाश और साधु पुरूषों का समादन करता है, उसे राजा का धर्म कहते है। राजा जो प्रेमपूर्वक सत्य का पालन करता है, प्रतिदिन भूदान देता है और अतिथियों तथा भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियों का सत्कार करता है, वह राजा का धर्म कहलाता है। जिसमें निग्रह[१] और अनुग्रह[२] दोनों प्रतिष्ठित हों, वह राजा इहलोक और परलोकमें मनोवांछित फल पाता है। मान्धाता ! राजा दुष्टों को दण्ड देनेके कानण यम तथा धार्मिकों पर अनुग्रह करने के कारण उनके लिये परमेश्वर के समान है। जब वह अपनी इन्द्रियों को संयममें रखता है, तब शासन में समर्थ होता है और जब संयम में नहीं रखता, तब मर्यादा से नीचे गिर जाता है। जब राजा ऋत्विक्, पुरोहित और आचार्य का बिना अवहेलना के सत्कार करके उनको उचित बर्ताव के साथ अपनाता है, तब राजा का धर्म कहलाता है। जैसे यमराज सभी प्राणियों पर समानरूप से शासन करते हैं, उसी प्रकार राजा को भी बिना किसी भेदभाव के समस्त प्रजाओंपर विधिपूर्वक नियन्त्रण रखना चाहिये। पुरूषप्रवर ! राजा की उपमा सब प्रकार से हजार नेत्रों वाले इन्द्र से दी जाती है; अतः राजा जिस धर्म को भलीभाँति समझकर निश्चित कर देता है वही श्रेष्ठ धर्म माना गया है। राजन्! तुम सावधान होकर क्षमा, विवेक, धृति और बुद्धि की शिक्षा ग्रहण करो। समस्त प्राणियों की शक्ति तथा भलाई-बुराई को भी सदा जानने की इच्छा करो। समस्त प्राणियों को अपने अनुकूल बनाये रखना, दान देना और मीठे वचन बोलना सीखो। नगर और बाहर गाँववाले लोगों की तुम्हें इस प्रकार रक्षा करनी चाहिये, जिससे उन्हें सुख मिले। तात! जो दक्ष नहीं है, वह राजा कभी प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता; क्योंकि यह राज्य का संचालनरूप अत्यन्त दुष्कर कार्य बहुत बड़ा भार है। राज्य की रक्षा तो वही राजा कर सकता है, जो बुद्धिमान् और शूरवीर होने के साथ ही दण्ड देने की नीति को भी जानता हो। जो दण्ड देने से हिचकता हो, वह नपुंसक और बुद्धिहीन नरेश कदापि राज्य की रक्षा नहीं कर सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दुष्टों को दण्ड देने का स्वभाव।
  2. दीन-दुखियों तथा साधु पुरूषों के प्रति दया एवं सहानुभूति।

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