महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 95 श्लोक 16-22

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १४:३८, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पन्चनवतितम (95) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पन्चनवतितम अध्याय: श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद

वह तो दुष्टोंका काम है। श्रेष्ठ पुरूषको तो दुष्टो पर भी धर्मसे ही विजय पानी चाहिये। धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना भी अच्छा है; परंतु पापकर्मके द्वारा विजय पाना अच्छा नहीं है। राजन् ! जैसे पृथ्वी में बोये हुए बीजका फल तत्काल नहीं मिलता, उसी प्रकार किये हुए पापका भी फल तुरंत नहीं मिलता है; परंतु जब वह फल प्राप्त होता है, तब मूल और शाखा दोनोंका जलाकर भस्म कर देता है। पापी मनुष्य पापकर्म के द्वारा धन पाकर हर्ष से खिल उठता है। वह पापी चोरी से ही बढ़ता हुआ पाप में आसक्त हो जाता है और यह समझकर कि धर्म है ही नहीं, पवित्रात्मा पुरूषों की हँसी उड़ाता है। धर्म में उसकी तनिक भी श्रद्धा नहीं रह जाती और पाप के ही द्वार वह विनाश के मुख में जा पड़ता है। वह अपने को देवताओं सा अजर-अमर मानता है; परंतु उसे वरूणके पाशोंमें बँधना पड़ता है। जैसे चमड़े की थैली हवा भरनेसे फूल जाती है, वैसे ही पापी भी पापसे फूल उठता है। वह पुण्यकर्ममें कभी प्रवृत्त ही नहीं होता है, तदनन्तर जैसे नदी के तटपर खड़ा हुआ वृक्ष वहाँ से जड़सहित उखड़कर नदींमें बह जाता है, उसी प्रकार वह पापी भी समूल नष्ट हो जाता है। पत्थरपर पटके हुए घडे़के समान उसके टूक-टूक हो जाते हैं और सभी लोग उसकी निन्दा करते हैं; अतः राजा को चाहिये कि वह धर्मपूर्वक ही धन और विजय प्राप्त करने की इच्छा करे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में विजयाभिलाषी राजा का बर्तावविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।