महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-18

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अट्ठाईसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : अट्ठाईसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 25 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भाई-बन्धुओं के शोक से संतत हो अपने प्राणों को त्याग देने की इच्छा वाले ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर के शोक को महर्षि व्यास ने इस प्रकार दूर किया।

व्यास जी बोले - पुरुष सिंह युधिष्ठिर! इस प्रसंग में जानकार लोग अश्मा ब्राह्मण के गीत सम्बन्धी इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करत हैं, इसे सुनो। एक समय की बात है, दुःख-शोक में डूबे हुए विदेहराज जनक ने ज्ञानी ब्राह्मण अश्मा से अपने मन का संदेह इस प्रकार पूछा।

जनक बोले- ब्रह्मन्! कुटुम्बीजन और धन की उत्पत्ति या विनाश होने पर कल्याण चाहने वाले पुरुष को कैसा निश्चय करना चाहिये?

अश्मा ने कहा- राजन्! मनुष्य का यह शरीर जब जन्म ग्रहण करता है, तब उसके साथ ही सुख और दुःख भी उसके पीछे लग जाते हैं। इन दोनों में से एक न एक की प्राप्ति तो होती ही है; अतः जो भी सुख या दुःख उपस्थित होता है, वही मनुष्य के ज्ञान को उसी प्रकार हर लेता है, जैसे हवा बादल को उड़ा ले जाती है। इसी से ’मैं कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ और कोई साधारण मनुष्य नहीं हूँ’ ये अंहकार की तीन धाराएँ मनुष्य के चित्त को सींचने लगती हैं। फिर वह मनुष्य भोगों में आसक्तचित्त होकर क्रमशः बाप-दादों की रक्खी हुई कमाई को उड़ाकर कंगाल हो जाता है और दूसरों के धन को हड़प लेना अच्छा मानने लगता है। जैसे व्याधे अपने बाणों द्वारा मृगों को आगे बढ़ने से रोकते हैं, उसी प्रकार मर्यादा लाॅघकर अनुचित रूप से दूसरों के धन का अपहरण वाले उस मनुष्य को राजा लोग दण्ड द्वारा वैसे कुमार्ग पर चलने से रोकते हैं। राजन्! जो बीस या तीस वर्ष की उम्र वाले मनुष्य चोरी आदि कुकर्मों में लग जाते हैं, वे सौ वर्ष तक जीवित नहीं रह पाते। जहाँ-तहाँ समस्त प्राणियों के दुःखद् वर्ताव से उन पर जो कुछ बीतता है, उसे देखता हुआ मनुष्य दरिद्रता से प्राप्त होने वाले उन महान् दुःखों का निवारण करने के लिये बुद्धि के द्वारा औषध करे (अर्थात् विचार द्वारा अपने आपको कुमार्ग पर जाने से रोके )। मनुष्यों को बार-बार मानसिक दुःखों की प्राप्ति के कारण दो ही हैं- चित्त का भ्रम और अनिष्ट की प्राप्ति। तीसरा कोई कारण सम्भव नहीं है। इस प्रकार मनुष्य को इन्हीं दो कारणों से भिन्न-भिन्न प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं। विषयों की आसक्ति से भी ये दुःख प्राप्त होते हैं। बुढ़ापा और मृत्यु- ये दोनों दो भेड़ियों के समान हैं, जो बलवान्, दुर्बल, छोटे और बड़े सभी प्राणियों को खा जाते हैं। कोई भी मनुष्य कभी बुढ़ापे और मौत को लाँघ नहीं सकता। भले ही वह समुद्र पर्यन्त इस सारी पृथ्वी पर विजय पा चुका हो। प्राणियों के निकट जो सुख या दुःख उपस्थित होता है, वह सब उन्हें विवश होकर सहना ही पड़ता है, क्यों कि उसके टालने का कोई उपया नहीं है ।। 16 ।। नरेश्वर! पूर्वावस्था, मध्यावस्था अथवा उत्तरावस्था में कभी न कभी वे क्लेश अनिवार्य रूप से प्राप्त होते ही हैं, जिन्हें मनुष्य उनके विपरीत रूप में चाहता है (अर्थात् सुख ही सुख की इच्छा करता है; परंतु उसे कष्ट भी प्राप्त होते ही हैं )। अप्रिय वस्तुओं के साथ संयोग, अत्यन्त प्रिय वस्तुओं का वियोग, अर्थ, अनर्थ, सुख और दुःख- इन सबकी प्राप्ति प्रारब्ध के विधान के अनुसार होती है। प्राणियों की उत्पत्ति, देहावसान, लाभ[१] और हानि-ये सब प्रारब्ध के ही आधार पर स्थित है। जैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध स्वभावतः आते जाते रहते हैं, उसी प्रकार मनुष्य सुख और दुःखों को प्रारब्धानुसार पाता रहता है। सभी प्राणियों के लिये बैठना, सोना, चलना-फिरना, उठना और खाना-पीना- ये सभी कार्य समय के अनुार ही नियत रूप से होते रहते हैं। कभी-कभी वैद्य भी रोगी, बलवान् भी दुर्बल और श्रीमान् भी असमर्थ हो जाते हैं, यह समय का उलट फेर बड़ा अद्भुत है। उत्तम कुल में जन्म, बल-पराक्रम, आरोग्य, रूप, सौभाग्य और उपभोग सामग्री- ये सब होनहार के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। जो दरिद्र हैं और संतान की इच्छा नहीं रखते हैं, उनके तो बहुत से पुत्र हो जाते हैं और जो धनवान् हैं, उनमें से किसी-किसी को एक पुत्र भी नहीं प्राप्त होता। विधाता की चेष्टा बड़ी विचित्र है। रोग, अग्नि, जल, शस्त्र, भूख, प्यास, विपत्ति, विष, ज्वर और ऊँचे स्थान से गिरता- ये सब जीव की मृत्यु के निमित्त हैं। जन्म के समय जिसके लिये प्रारब्ध वश जो निमित्त नियत कर दिया गया है, वही उसका सेतु है, अतः उसी के द्वारा वह जाता है अर्थात् परलोक में गमन करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीलकण्ठ ने ’प्राप्ति’ का अर्थ ’लाभ’ और ’व्यायाम’ का अर्थ उसके विपरीत ’अलाभ’ किया है।

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