महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-19
उन्तीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! स्बके समझाने बुझाने पर भी जब धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिर मौन हीरह गये, तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण से कहा।
अर्जुन बोले- माधव! शत्रुओं को संताप देने वाले ये धर्मपुत्र युधिष्ठिर स्वयं भाई-बन्धुओं के शोक से संतप्त हो शोक के समुद्र में डूब गये हैं, आप इन्हें धीर न बँधाइये। महाबाहु जनार्दन! हम सब लोग पुःन महान् संशय में पड़ गये हैं। आप इनके शोक का नाश कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! महामना अर्जुन के ऐसा कहने पर अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले कमलनयन भगवान् गोविन्द राजा युधिष्ठिर की ओर घूमे- उनके सम्मुख हुए। धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्री कृष्ण की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं कर सकते थे; क्यों कि श्री कृष्ण बाल्यावस्था से ही उन्हें अर्जुन से भी अधिक प्रिय थे। म्हाबाहु गोविन्द ने युधिष्ठिर की पत्थर के बने हुए खम्भे जैसी चन्दनचर्चित भुजा को हाथ में लेकर उनका मनोरंजन करते हुए इस प्रकारह बोलना आरम्भ किया। उस समय सुन्दर दाँतों और मनोहर नेत्रों से युक्त उनका मुखार विन्द सूर्यादय के समय पूर्णतः विकसित हुए कमल के समान शोभा पा रहा था।
भगवान् श्री कृष्ण बोले- पुरुष सिंह! तुम शोक न करो। शोक तो शरीर को सुखा देने वाला होता है। इस संग्राम में जो वीर मारे गये हैं, वे फिर सहज ही मिल सकें, यह सम्भव नहीं है। राजन्! जैसे सपने में मिले हुए धन जगने पर मिथ्या हो जाते हैं, उसी प्रकार जो क्षत्रिय महासमर में नष्ट हो गये हैं, उनका दर्शन अब दुर्लभ है। संग्राम में शोभा पाने वाले वे सभी शूरवीर शत्रु का सामना करते हुए पराजित हुए हैं। उनमें से कोई भी पीठ पर चोट खाकर या भागता हुआ नहीं मारा गया है। सभी वीर महायुद्ध में जूझते हुए अपने प्राणों का परित्याग करके अस्त्र-शस्त्रों से पवित्र हो स्वर्गलोक में गये हैं, अतः तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। क्षत्रिय-धर्म में तत्पर रहने वाले, वेद-वेदाताओं के पारंगत वे शेरवीर नरेश पुण्यमयी वीर-गति को प्राप्त हुए हैं। पहले के मरे हुए महानुभाव भूपतियों का चरित्र सुनकर तुम्हें अपने उन बन्धुओं के लिये भी शेाक नहीं करना चाहिये। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, जैसा कि इन देवर्षि नारद जी ने पुत्र शोक से पीड़ित हुए राजा सृंजन से कहा था। ’सृंजय! मैं, तुम और ये समस्त प्रजावर्ग के लोग कोई भी सुख और दुःखों के बन्धन से मुक्त नहीं हुए हैं एक दिन हम सब लोग मरेंगे भी। फिर इसके लिये शोक क्या करना है? ’नरेश्वर! मैं पूर्ववर्ती राजाओं के महान् सौभाग्य का वर्णन करता हूँ। सुनो और सावधान हो जाओ। इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा। ’मरे हुए महानुभाव भूपतियों का नाम सुनकर ही तुम अपने मानसिक संताप को शान्त कर लो और मुझसे विस्तार पूर्वक उन सबका परिचय सुनो। ’ उन पूर्ववर्ती राजाओं का श्रवण करने योग्य मनोहर वृत्तान्त बहुत ही उत्तम, क्रूर ग्रहों को शान्त करने वाला और आयु को बढ़ाने वाला है। ’सृंजय! हमने सुना है कि अविक्षित् के पुत्र वे राजा मरुत्त भी मर गये, जिन महात्मा नरेश के यज्ञ में इन्द्र तथा वरूण सहित सम्पूर्ण देवता और प्रजापतिगण बृहस्पति को आगे करके पधारे थे। ’उन्होंने देवराज इन्द्र से स्पर्धा रखने के कारण अपने यज्ञ वैभव द्वारा उन्हें पराजि कर दिया था। इन्द्र का प्रिय चाहने वाले बृहस्पति जी ने जब उनका यज्ञ कराने से इन्कार कर दिया, तब उन्होंने छोटे-भाई संवर्त ने मरूत्तका यज्ञ कराया था। नृपश्रेष्ठ! राजा मरुत्त जब इस पृथ्वी का शासन करते थे, उस समय यह बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी और समस्त भूमण्डल में देवालयों की माला-सी दृष्टिगोचर होती थी, जिससे इस पृथ्वी की बड़ी शोभा होती थी। ’महामना मरुत्त के यज्ञ में विश्वे देवगण सभासद थे और मरूइन्द्र तथा साध्यगण रसोई परोसने का काम करते थे। ’मरुद्रोण ने मरुत्त के यज्ञ में उस समय खूब सोमरस का पान किया था। राजा ने जो दक्षिणाएँ दी थीं, वे देवताओें मनुष्यों और गन्धर्वों के सभी यज्ञों से बढकर थी। ’सृजय! धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य - इन चारों बातों में राजा मरुत्त तुम से बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरों की क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृजय! अतिथिसक्तकार के प्रेमी राजा सुहोत्र भी जीवित नहीं रहे, ऐसा सुनने में आया है। उनके राज्य में इन्द्र ने एक वर्ष तक सोने की वर्षा की थी। ’राजा सुहात्र को पाकर पृथ्वी का वसुमती नाम सार्थक हो गया था। जिस समय वे जनपद के स्वामी थे, उन दिनों वहाँ की नदियाँ अपने जल के साथ-साथ सुवर्ण बहाया करती थीं। ’राजन्! लोकपूजित इन्द्र ने सोने के बने हुए बहुत से कछुए, केकड़े,नाके, मगर, सूँस और मत्स्य उन नदियों में गिराये थे। ’उन नदियों में सैकड़ों और हजारों की संख्या में सुवर्णमय मत्स्यों, ग्रहों और कछुओं को गिराया गया देख अतिथि प्रिय राजा सुहोत्र आश्चर्य चकित हो उठे थे। ’ वह अनन्त सुवर्ण राशि कुरूजांगल देश में छा गयी थी। राजा सुहोत्र न वहाँ यज्ञ किया और उसमें वह सारी धनराशि ब्राह्मणों में बाँट दी
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