महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 344 श्लोक 1-19

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तीन सौ चैवालीसवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ चैवालीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद

नर-नारायण का नारदजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें भगवान् वासुदेव का माहात्म्य बतलाना

नर-नारायण ने कहा - नारद ! तुमने श्वेतद्वीप में जाकर जो साक्षात् भगवान् का दर्शन कर लिया, दससे तुम धन्य हो गये। वास्तव में भगवान् ने तुम पर बड़ा भारी अनुग्रह किया। तुम्हारे सिवा और किसी ने, साक्षात् कमलयोनि ब्रह्माजी ने भी भगवान् का इसउ प्रकार दर्यान नहीं किया। नारद ! वे भगवान् पुरुषोत्तम अव्यक्त प्रकृति के मूल कारण हैं। उनका दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है। द्विजश्रेष्ठ ! हम दोनों तुमसे सच कहते हैं कि भगवान् को इस जगत् में भक्त से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है। इसलिये उन्होंने स्वयं ही तुम्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया है। द्विजोत्तम ! तपस्या में लगे हुए उन परमात्मा का जो स्थान है, वहाँ हम दोनों के सिवा दूसरा कोई नहीं पहुँच सकता। एक हजार सूर्यों के एकत्र होने पर जितनी कान्ति हो सकती है, उतनी ही उस स्थान की भी कानित है, जहाँ भगवान् विराज रहे हैं। विप्रवर ! क्षमाशीलों में श्रेष्ठ नारद ! विश्वविधाता ब्रह्माजी के भ्ी पति उन परमेश्वर से ही क्षमा की उत्पत्ति हुई है, जिससे पृथ्वी का संयोग होता है। सम्पूर्ण प्राणियों का हित चाहने वाले उन नारायणदेव से ही रस प्रकट हुआ है, जिसका जल के साथ संयोग है और जिसके कारण जल द्रवीभूत होता है। उन्हीं से रूप-गुणविशिष्ट तेज का प्रादुर्भाव हुआ है, जिससे सूर्यदेव संयुक्त हुए हैं। इसीलिये वे लोक में प्रकाशित हो रहे हैं। उन्हीं भगवान् पुरुषोत्तम से स्पर्श की उत्पत्ति हुई है, जिससे वायुदेव संयुक्त होते हैं और उससे संयुक्त होने के कारण ही वे सम्पूर्ण लोकों में प्रवाहित होते हैं। उन्हीं सर्वलोकेश्वर प्रभु से शब्दका प्रादुर्भाव होता है, जिससे आकाश का नित्य संयोग है और जिसके ही कारण वह निरावृत रहता है। उन्हीं नारायणदेव से सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर रहने वाले मन की उत्पत्ति हुई है। उस मन से संयुक्त होकर ही चन्द्रमा प्रकाश-गुण को धारण करता है। जहाँ भगवान् श्रीहरि हव्य और कव्य का भोग ग्रहण करते हुए विद्याशक्ति के साथ विराजमान हें, वह वेदसंज्ञक स्थान सद्भक्तोत्पादक कहलाता है। द्विजश्रेष्ठ ! संसार में लोग पुण्य और पाप से रहित एवं निर्मल हैं, वे कल्याणमय मार्ग से भगवद्धाम को प्राप्त होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोकों के अन्धकार का नाश करने वाले भगवान् सूर्य ही उनके उस मोक्षधाम का द्वार बताये जाते हैं। सूर्यदेव उनके सम्पूर्ण अंगों को जलाकर भस्म कर देते हैं। फिर कहीं कोई उन्हें देख नहीं पाता। वे परमाणुस्वरूप होकर उन्हीं सूर्यदेव में प्रवेश कर जाते हैं। फिर उनसे भी मुक्त होकर वे अनिरुद्धविग्रह में सिथत होते हैं। फिर मनोमय होकर प्रद्युम्न में प्रवेश करते हैं। प्रद्युम्न से भी मुक्त होकर वे सांख्यज्ञान सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मण भगवद्भक्तों के साथ जीवस्वरूप संकर्षण मेें प्रविष्ट होते हैं। तदनन्तर तीनों गुणों से मुकत हो वे श्रेष्ठ द्विज अनायास ही निर्गुणस्वरूप क्षेत्रज्ञ परमात्मा में प्रवेश कर जाते हैं। तुम सबके निवास स्थान भगवान् वासुदेव को ही क्षेत्रज्ञ समझो। जिन्होंने अपने मन को एकाग्र कर लिया है, जो शौच संतोष आदि नियमों से सम्पन्न और जितेन्द्रिय हैं, वे अनन्य भाव से भगवान् की शरण में गये हुए भक्त साक्षात् चासुदेव में प्रवेश करते हैं। द्विजश्रेष्ठ ! हम दोनों भी धर्म के घर में अवतीर्ण हो इस रमणीय बदरिकाश्रमतीर्थ का आश्रय ले कठोर तपस्या में संलग्न हैं। ब्रह्मन् ! उन्हीं भगवान् परमदेव परमात्मा के तीनों लोकों में जो द्रेवप्रिय अवतार होने वाले हैं, उनका सदा ही परम मंगल हो- यही हमारी इस तपस्या का उद्देश्य है। द्विजोत्तम ! हम दोनों ने पूर्ववत् अपने कर्म में संलग्न हो सर्वोत्तम एवं सम्पूर्ण कठिनाइयों से युक्त उत्तम व्रत में तत्पर रहते हुए ही श्वेतद्वीप में उपसिथत होकर वहाँ तुम्हें देखा था। तपोधन ! तुम वहाँ भगवान् से मिले और उनके साथ वार्तालाप किया। ये सारी बातें हम दोनों को अच्छी तरह विदित है। महामुने ! चराचर प्राणियों ाहित तीनों लोकों में जो शुभ या अशुभ बात हो चुकी है, हो रही है, अथवा होने वाली है, वह सब उस समय देवदेव भगवान् श्रीहरि ने तुमसे कही थी।

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! कठोर तपस्या में लगे हुए भगवान् नर और नारायण की यह बात सुनकर नारदजी ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और नारायण की शरण लेकर उन्हीं की आराधना में लग गये। उन्होंने नारायण सम्बन्धी बहुत से मन्त्रों का विधिपूर्वक जप किया और एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक वे नर-नारायण के आश्रय में रहे। महातेजस्वी भगवान् नारद मुनि प्रतिदिन उन्हीं भगवान् वासुदेव की तथा उन देानों नर और नारायण की भी आराधना करते हुए वहाँ रहने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा विषयक तीन सौ चैवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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