महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 353 श्लोक 1-9
तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)
महापद्मपुर में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण के सदाचार का वर्णन और उसके घर पर अतिथि का आगमन
भीष्मजी कहते हैं - नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! (नारदजी ने जो कथा सुनायी, वह इस प्रकार है-) गंगा के दक्षिण तट पर महापद्म नामक कोई श्रेष्ठ नगर है। वहाँ एक ब्राह्मण रहता था। वह एकाग्रचित्त और सौम्य स्वभाव का मनुष्य था। उसका जन्म चन्द्रमा के कुल में- अत्रिगोत्र में हुआ था। वेद में उसकी उच्छी गति थी और उसके मन में किसी प्रकार का संदेह नहीं था। वह सदा धर्मपरायण, क्रोयरहित, नित्य संतुष्ट, जितेन्द्रिय, तप और स्वाध्याय में संलग्न, सत्यवादी और सत्पुरुषों के सम्मान का पात्र था। न्यायोपार्जित धन और अपने ब्राह्मणोचित शील से सम्पन्न था। उसके कुल में सगे-सम्बन्धियों की संख्या अधिक थी। सभी लोग सत्त्वप्रधान सद्गुणों का सहारा लेकर श्रेष्ठ जीवन व्सतीत करते थे। उस महान् एवं विख्यात कुल में रहकर वह उत्तम आजीविका के सहारे जीवन निर्वाह करता था। राजन् ! उसने देखा कि मेरे बहुत से पुत्र हो गये, तब वह लौकिक कार्य से विरक्त हो महान् कर्म में संलग्न हो गया और अपने कुल धर्म का आश्रय ले धर्माचरण में ही तत्पर रहने लगा। तदनन्तर उसने वेदाक्त धर्म, शास्त्रोक्त धर्म तािा शिष्ट पुरुषों द्वारा आख्चारित धर्म-इन तीन प्रकार के धर्मों पर मन-ही-मन विचार करना आरम्भ किया-। ‘क्या करने से मेरा कल्याण होगा ?मेरा क्या कर्तव्य है तथा कौन मेरे लिये परम आश्रय है ?’ इस प्रकार वह सदा सोचते-सोचते खिन्न हो जाता था; परंतु किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाता था। एक दिन जब वह इसी तरह सोच-विचार में पड़ा हुआ कष्ट पा रहा था, उसने यहाँ एक परम धर्मात्मा तथा एकाग्र्चित्त ब्राह्मण अतिथि के रूप में आ पहुँचा। ब्राह्मण ने उस अतिथि का क्रियायुक्त हेतु (शास्त्रोक्त विधि) से आदर-सत्कार किया और जब वह सुखपूर्वक बैठकर विश्राम करने लगा, तब उससे इस प्रकार कहा।
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