महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 56 श्लोक 18-33

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छ्प्पनवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : छ्प्पनवाँ अध्याय: श्लोक 25-47 का हिन्दी अनुवाद

जब लोहा पत्थर पर चोट करता है, आग जल को नष्ट करने लगती है और क्षत्रिय ब्राह्मण से द्वेष करने लगता है, तब ये तीनों ही दुख उठाते है। अर्थात् ये दुर्बल हो जाते है। महाराज! ऐसा सोचकर तुम्हें ब्राह्मणों को सदा नमस्कार ही करना चाहिये; क्योंकि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण पूजित होने पर भूतल के ब्रह्म को अर्थात वेद को धारण करते है। पुरूषसिंह! यद्यपि ऐसी बात है, तथापि यदि ब्राह्मण भी तीनों लोकों का विनाश करने के लिये उद्यत हो जायँ तो ऐसे लोगों को अपने बाहु-बल से परास्त करके सदा नियन्त्रण में ही रखना चाहिये। तात! नरेश्वर! इस विषय में दो श्लोक प्रसिद्ध है, जिन्हें पूर्वकाल में महर्षि शुक्राचार्य ने गाया था। महाराज! तुम एकाग्रचित होकर उन दोनों श्लोक को सुनो। वेदान्त का पारन्गत विद्वान ब्राह्मण ही क्यों न हो; यदि वह शस्त्र उठाकर युद्ध में सामना करने के लिये आ रहा हो तो धर्मपालन की इच्छा रखने वाले राजा को अपने धर्म के अनुसार ही युद्ध करके उसे कैद कर लेना चाहिये। जो राजा उसके द्वारा नष्ट होते हुए धर्म की रक्षा करता है, वह धर्मज्ञ है। अतः उसे मारने से वह धर्म का नाशक नहीं माना जाता। वास्तव में क्रोध ही उनके क्रोध से टक्कर लेता है। नरश्रेष्ठ! यह सब होने पर भी ब्राह्मणों की तो सदा रक्षा ही करनी चाहिये; यदि उनके द्वारा अपराध बन गये हो तो उन्हें प्राणदण्ड न देकर अपने राज्य की सीमा से बाहर छोड देना चाहिये। प्रजानाथ! इनमें कोई कलकिंत हो तो उस पर भी कृपा ही करनी चाहिये। ब्रह्महत्या, गुरूपत्नीगमन, भू्रणहत्या तथा राजद्रोह का अपराध होने पर भी ब्राह्मण को देश से निकाल देने का ही विधान है- उसे शारीरिक दण्ड कभी नहीं देना चाहिये।। जो मनुष्य ब्राह्मणों के प्रति भक्ति रखते है, वे सबके प्रिय होते है। राजाओं के लिये ब्राह्मण के भक्तों का संग्रह करने से बढकर दूसरा कोई कोश नहीं है। महाराज! मरू ( जलरहित भूमि ), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत और मनुष्य - इन छः प्रकार के दुर्गों में मानवदुर्ग ही प्रधान है। शास्त्रों के सिद्धान्त को जानने वाले विद्वान उक्त सभी दुर्गों में मानव दुर्ग को ही अत्यन्त दुर्लंध्य मानते है। अतः विद्वान राजा को चारों वर्णों पर सदा दया करनी चाहिये, धर्मात्मा और सत्यवादी नरेश ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है। बेटा! तुम्हें सदा और सब और क्षमाशील ही नहीं बने रहना चाहिये; क्योंकि क्षमाशील हाथी के समान कोमल स्वभाव वाला राजा दूसरों को भयभीत नहीं कर सकने के कारण अधर्म के प्रसार में ही सहायक होता है। महाराज! इसी बात के समर्थन में बार्हस्पत्य शास्त्र का एक प्राचीन श्लोक पढा जाता है। मैं उसे बता रहा हूँ, सुनो। नीच मनुष्य क्षमाशील राजा का सदा उसी प्रकार तिरस्कार करते रहते है, जैसे हाथी का महावत उसके सिर पर ही चढे रहना चाहता है। जैसे वसन्त ऋतु का तेजस्वी सूर्य न तो अधिक ठंडक पहुँचाता है और न कडी धूप ही करता है, उसी प्रकार राजा को भी न तो बहुत कोमल होना चाहिये और न अधिक कठोर ही। महाराज! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चारों प्रमाणों के द्वारा सदा अपने पराये की पहचान करते रहना चाहिये। प्रचुर दक्षिणा देने वाले नरेश्वर! तुम्हें सभी प्रकार के व्यसनों को *त्याग देना चाहिये; परंतु साहस आदि का भी सर्वथा प्रयोग न किया जाय, ऐसी बात नहीं है ( क्योंकि शत्रुविजय आदि के लिये उसकी आवश्यकता है ); अतः सभी प्रकार के व्यसनों की आसक्ति का परित्याग करना चाहिये। व्सनों में आसक्त हुआ राजा सदा सब लोगों के अनादर का पात्र होता है और जो भूपाल सबके प्रति अत्यन्त द्वेष रखता है, वह सब लोगों को उद्वेगयुक्त कर देता है।।43।।महाराज! राजा का प्रजा के साथ गर्भिणी स्त्री का सा बर्ताव होना चाहिये। किस कारण से ऐसा होना उचित हैं, यह बताता हूँ, सुनो। जैसे गर्भवती स्त्री अपने मन को अच्छे लगने वाले प्रिय भोजन आदि का परित्याग करके केवल गर्भस्थ बालक के हित का ध्यान रखती है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा को भी चाहिये कि निःसंदेह वैसा ही बर्ताव करे। कुरूश्रेष्ठ! राजा अपने को प्रिय लगने वाले विषय का परित्याग करके जिसमें सब लोगों का हित हो वहीं कार्य करे। पाण्डुनन्दन! तुम्हें कभी भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिये। जो अपराधियों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता और सदा धैर्य रखता है, उस राजा को कभी भय नहीं होता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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