महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-20
नवम अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
युधिष्ठिरने कहा- अर्जुन! तुम अपने मन और कानों का अन्तःकरण में स्थापित करके दो घड़ी तक एकाग्र हो जाओ, तब मेरी बात सुनकर तुम इसे पसंद करोगे।
मैं ग्राम्य सुखों का परित्याग करके साधु पुरूषों के चले हुए मार्ग पर तो चल सकता हॅूं; परंतु तुम्हारे आग्रह के कारण कदापि राज्य नहीं स्वीकार नहीं करूंगा। एकाकी पुरूष के चलने योग्य कल्याणकारी मार्ग कौन-सा है? यह मुझसे पूछो अथवा यदि पूछना नहीं चाहते हो तो बिना पूछे भी मुझसे सुनो मैं गँवारों के सुख और आचार पर लात मारकर बन में रहकर अत्यन्त कठोर तपस्या करूंगा, फल-मूल खाकर मृगों के साथ विचारूंगा। दोनों समय स्नान करके यथासमय अग्निहोत्र करूगा और परिमित आहार करके शरीर को दुर्बल कर दूंगा। मृग-चर्म तथा बल्कल वस्त्र धारण करके सिर पर जटा रखूंगा। सर्दी, गर्मी ओर हवा को सहूगा, भूख, प्यास और परिश्रम को सहने का अभ्यास डालॅूगा, शास्त्रोंक्त , तपस्या द्वारा इस शरीर को सुखाता रहूंगा। बन में खिले हुए वृक्षों और लताओं की मनोहर मुगन्ध सूघता हुआ अनेक रूपवाले सुन्दर वनवासियों को देखा करूंग। वहा वानप्रस्थ महात्माओं तथा ऋषिकुलवासी ब्रहमचारी ऋषि- मुनियों का भी दर्शन होगा। मैं किसी वनवासी का भी अप्रिय नहीं करूंगा; फिर ग्रामवासियों की तो बात ही क्या है? एकान्त में रहकर आध्यात्मिक तत्व का विचार किया करूँगा और कच्चा-पक्का जैसा भी फल मिल जायगा। उसी को खाकर जीवन- निर्वाह करूंगा। जंगली फल-मूल, मधुर वाणी, और जल के द्वारा देवतओं तथा पितरों को तृप्त करता रहूगा। इस प्रकार वनवासी मुनियों के लिये शास्त्र में बताये हुए कठोर-से कठोर नियमों का पालन करता हुआ इस शरीर की आयु समाप्त होने की बाट देखता रहूगा। अथवा मैं मूड़ मुड़ाकर मननशील हो जाऊॅगा और एक-एक दिन एक-एक वृक्ष से भिक्षा मागकर आने शरीर को सुखाता रहूगा। शरीर पर धूल पड़ी होगी और सूने घरों में मेरा निवास होगा अथवा किसी वृक्ष के नीचे उसकी जड़ में ही पड़ा रहूंगा। प्रिय और अप्रिय का सारा विचार छोड़ दूगा। किसी के लिये न शोक करूगा न हर्ष। निन्दा और स्तुतिको समान समझॅूगा। आशा और ममता को त्यागकर निद्र्वन्द्व हो जाऊँगा तथा कभी किसी वस्तुका संग्रह नहीं करूगा। आत्मा के चिन्तन में ही सुख का अनुभव करूँगा, मनको सदा प्रसन्न रक्खॅगा, कमी किसी दूसरे के साथ कोई बातचीत नहीं करँगा; गँगों,अंधों ओर बहरों के समान न किसी से कुछ कहूँगा, न किसी को देखूँगा और न किसी की सुनऊँगा। चार प्रकार के समस्त चराचर प्राणियों में से किसी की हिंसा नहीं करॅगा। अपने-अपने धर्म में स्थित हुई समस्त प्रजाओं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति समभाव रक्खूगा। न तो किसी की हॅसी उड़ाऊगा और न किसी के प्रति भौंहो को ही टेढ़ी करूगा। सदा मेरे मुख पर प्रसन्नता छायी रहेगी और मैं सम्पूर्ण इन्द्रियों को पूर्णतः संयम में रक्खूगा। किसी भी मार्ग से चलता रहूगा और कभी किसी से रास्ता नहीं पूछूगा। किसी खास स्थान या दिशा की ओर जाने की इच्छा नहीं रखूगा। कहीं भी मेरे जाने का कोई विशेष उदेदश्य नहीं होगा। न आगे जाने की उत्सुकता होगी, न पीछे फिर कर देखूगा। सरल भाव से रहूगा। मेरी दृष्टि अन्तर्मुखी होगी। स्थावर जड़म जीवों का बचाता हुआ आगे चला रहूंगा। स्वभाव आगे-आगे चलता है, भोजन भी अपने-आप प्रकट हो जाते हैं, सर्दी-गर्मी आदि जो परस्पर विरोधी द्वन्द्वहैं वे सब आते-जाते रहते हैं, अतः इन सबकी चिन्ता छोड़ दूगा। भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन मिली, इसका विचार न करके उसे पालूंगा। मिल गया तो ठीक है, न मिलने की दशा में क्रमशः सात घरों में जाऊॅगा, आठवें में नहीं जाऊॅगा। जब घरों में धुआं निकलना बंद हो गया हो, मूसल रख दिया गया हों, परोसी हुई थाली की इधर-उधर ले जाने का काम सात समाप्त हो गया हो और भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समय मैं एक ही वक्त भिक्षा के लिये दो, तीन या पाच घरों तक जाया करूंगा। सब ओर से स्नेह का बन्धन तोड़कर इस पृथ्वी पर विचरता रहॅंगा। कुछ मिले या न मिले, दोनों ही अवस्था में मेरी दृष्टि समान होगी। मैं महान् तप में संलग्न रहकर ऐसा कोई आचरण नहीं करूगा, जिसे जीने या मरने की इच्छा बाले लोग करते हैं। न तो जीवन का अभिनन्दन करूंगा, न मृत्यु से द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बाह को बसूले से काटता हो और दूसरा दूसरी बाह को चन्दनामिश्रित जल से खींचता हो तो न पहले का अमंगल सोचूंगा और न दूसरे की मंगल कामना करूंगा। उन दोनों के प्रति समान भव रक्खूगा। जीवित पुरूष के द्वारा जो कोई भी अभ्युदयकारी कर्म किये जा सकते हैं, उन सबका परित्याग करके केवल शरीर- निर्वाह के लिये पलकों के खोलने-मींचने या खाने-पीने आदि के कार्य में ही प्रवृत्त हो सकूंगा। इन सब कार्यों में भी आसक्त नहीं होऊॅंगा। सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापारों से उपरत होकर मन को संकल्प शून्य करके अन्तःकरण का सारा मल धो डालूगा। सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहकर स्नेह के सारे बन्धनों को लांघ जाऊॅगा। किसी के अधीन न रहकर वायु के समान सर्वत्र विचारूंगा। इस प्रकार वीतराग हो कर विचरने से मुझे शाश्रवत संतोष प्राप्त होगा। अज्ञान वश तृष्णा ने मुझसे बडे़-बड़े पाप करवाये हैं । कुछ मनुष्य शुभा शुभ कर्म करके कार्य- कारण से अपने साथ जुड़े हुए स्वजनों का भरण-पोषण करते हैं। फिर आयु के अन्त में जीवात्मा इस प्राण शून्य शरीर को त्यागकर पहले के किये हुए उस पाप को ग्रहण करता है; क्योंकि कर्ता को ही उसके कर्म का वह फल प्राप्त होता है। इस प्रकार रथ के पहिये के समान निरन्तर घूमते हुए इस संसार चक्र में आकर जीवों का यह समुदाय कार्यवश अन्य प्राणियों से मिलता है। इस संसार में जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और बेदनाओं का आक्रमण होता ही रहता है, जिससे यहां का जीवन कमी स्वस्थ नहीं रहता । जो अपार-सा प्रतीत होने वाले इस संसार-को त्याग देता है, उसी को सुख मिलता है। जब देवता भी स्वर्ग से नीचे गिरते हैं और महर्षि भी अपने-अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाते हैं, तब कारण-तत्व को जानने वाला कौन मनुष्य इस जन्म-मरणरूप संसार से कोई प्रयोजन रखेगा। भाति-भाति के भिन्न-भिन्न कर्म करके विख्यात हुआ राजा भी किन्हीं छोटे-मोटे कारणों से ही दूसरे राजाओं द्वारा मार डाला जाता है। आज दीर्घकाल के पश्चात् मुझे यह विवकेरूपी अमृत प्राप्त हुआ है। इसे पाकर मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन पद प्राप्त करना चाहता हॅूं। अतः इस पूर्वोउक्त धारणा के द्वारा निरन्तर विचरता हुआ मैं निर्भय मार्ग का आश्रय ले जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं से आक्रान्त हुए इस शरीर को अलग रख दूंगा।
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