महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 193 श्लोक 1-17

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त्रिनवत्‍यधिकशततम (193) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

शिष्‍टाचार का फल सहित वर्णन, पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा

युधिष्ठिर ने पूछा- धर्मज्ञ पितामह! अब मैं आपके मुख से सदाचार की विधि सुनना चाहता हूं, क्‍योंकि आप सर्वज्ञ हैं। भीष्‍मजी ने कहा- राजन्! जो दुराचारी, बुरी चेष्‍टावाले, दुर्बुद्धि और दुसाहस को प्रिय मानने वाले हैं, वे दुष्‍टात्‍मा के नाम से विख्‍यात होते हैं। श्रेष्‍ठ पुरूष तो वहीं हैं, जिनमें सदाचार देखा जाय- सदाचार ही उनका लक्षण है। जो मनुष्‍य सड़कपर, गौओं के बीच में और अनाज में मल या मूत्र का त्‍याग नहीं करते हैं, वे श्रेष्‍ठ समझे जाते हैं। प्रतिदिन आवश्‍यक शौच का सम्‍पादन करके आचमन करे; फिर नदी में नहाये और अपने अधिकार के अनुसार संध्‍योपासना के अनन्‍तर देवता आदि का तर्पण करे। इसे विद्वान् पुरूष मानवमात्र का धर्म बताते हैं। नित्‍यप्रति सूर्योपस्‍थान करे। सूर्योदय के समय कभी न सोये। सायंकाल और प्रात:काल दोनों समय संध्‍योपासना करके गायत्रीमंत्र का जप करे। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुंह- इन पांच अंगों को धोकर[१] पूर्वाभिमुख हो भोजन करे। भोजन के समय मौन रहे। परोसे हुए अन्‍नकी निंदा न करे। वह स्‍वादिष्‍ट हो या न हो, प्रेम से भोजन कर ले। भोजन के बाद हाथ धोकर उठै। रात को भीगे पैर न सोये। देवर्षि नारद इसी को सदाचार का लक्षण कहते हैं। यज्ञशाला आदि पवित्र स्‍थान, बैल, देवालय, चौराहा, ब्राह्मण धर्मात्‍मा मनुष्‍य तथा चैत्‍य (दैवसंबधी वृक्ष)- इनको सदा दाहिने करके चले। गृहस्‍थ पुरूष को घर में अतिथियों, सेवकों और स्‍वजनों के लिये भी एक-सा भोजन बनवाना श्रेष्‍ठ माना गया है । शास्‍त्र में मनुष्‍यों के लिये सायंकाल और प्रात:काल दो ही भोजन करने का विधान है। बीच में भोजन करने की विधि नहीं देखी गयी है। जो इस नियम का पालन करता है, उसे उपवास करने का फल प्राप्‍त होता है। जो होम के समय प्रतिदिन हवन करता, ॠतुकाल में स्‍त्री के पास जाता और परायी स्‍त्री पर कभी दृष्टि नहीं डालता, वह बुद्धिमान् पुरूष ब्रह्मचारी के समान माना जाता है। ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद बचा हुआ अन्‍न अमृत है। वह माता के स्‍तन्‍य की भांति हितकर है। उसको जो लोग सेवन करते हैं, वे श्रेष्‍ठ पुरूष सत्‍यस्‍वरूप परब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्‍त कर लेते है। जो मनुष्‍य मिट्टी के ढेले फोडता, तिनके तोड़ता, नख चबाता, सदा जूठे हाथ और जूठे मुंह रहता है तथा खूंटी में बंधे हुए तोते के समान पराधीन जीवन बिताता है, उसे इस जगत् में बड़ी आयु नहीं मिलती। जो मांस–भक्षण न करता हो, वह यजुर्वेद के मन्‍त्रोंद्वारा संस्‍कार किया हुआ मांस भी न खाय। व्‍यर्थ मांस और श्राद्धशेष मांस भी वह त्‍याग दे। मनुष्‍य स्‍वदेश में हो या परदेश में- अपने पास आये हुए अतिथि को भूखा न रहने दे। सकाम कर्तव्‍यकर्मों के फलरूप में प्राप्‍त पदार्थ अपने गुरूजनों को निवेदित कर दे । गुरूजन पधारें तो उन्‍हें बैठने के लिये आसन दे, प्रणाम करे, गुरूओं की पूजा करने से मनुष्‍य आयु, यश और लक्ष्‍मी से सम्‍पन्‍न होते हैं। उगते हुए सूर्य की ओर न देखे, नंगी हुई परायी स्‍त्री की ओर दृष्टि न डाले और सदा धर्मानुसार ॠतुकाल के समय अपनी ही पत्‍नी के साथ एकांत स्‍थान में समागम करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तात्पर्य यह कि भोजन के लिये जाते समय तत्काल हाथ, पैर और मुँह धोने चाहिये। बहुत पहले के धोये हों, तो भी उस समय धो लेना आवश्यक है।

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