महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 193 श्लोक 18-33
त्रिनवत्यधिकशततम (193) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तीर्थो में श्रेष्ठ तीर्थ विशुद्ध हृदय है, पवित्र वस्तुओं में अतिपवित्र भी विशुद्ध हृदय ही है। शिष्ट पुरूष जिसे आचरण में लाते है, वह आचरण सर्वश्रेष्ठ है। चंवर आदि में लगे हुए गाय की पूंछ के बालों का स्पर्श भी शिष्टाचारानुमोदित होने के कारण शुद्ध है। परिचित मनुष्य से जब–जब भेंट हो, सदा उसका कुशल–समाचार पूछे। सायंकाल और प्रात:काल दोनों समय ब्राह्मणों को प्रणाम करे, यह शास्त्र की आज्ञा है। देवमंदिर में, गौओं के बीच में, ब्राह्मण के यज्ञादि कर्मो में, शास्त्रों के स्वाध्यायकाल में और भोजन करते समय दाहिने हाथ से काम ले। सबेरे और शाम दोनों समय विधिपूर्वक ब्राह्मणों का पूजन (सेवा–सत्कार) करना चाहिये। यही व्यापारों में उत्तम व्यापार की भांति शोभा पाता है और यही खेती में सबसे अच्छी खेती समान प्रत्यक्ष फलदायक है। ब्राह्मणपूजक पुरूष के विविध अन्नों की वृद्धि होती है और उसे वाहनों में गोजाति के श्रेष्ठ वाहन सुलभ होते हैं। भोजन कराने के पश्चात् दाता पूछे कि क्या भोजन सम्पन्न हो गया? ब्राह्मण उत्तर दे कि सम्पन्न हो गया। इसी प्रकार जल पिलाने के बाद दाता पूछे तृप्ति हुई क्या? ब्राह्मण उत्तर दे कि अच्छी तरह तृप्ति हो गयी। खीर खिलाने के बाद जब यजमान पूछे कि अच्छा बना था न ? तब ब्राहम्ण उत्तर दे बहुत अच्छा बना था। इसी प्रकार जौका हलुआ और खिचड़ी खिलाने के बाद भी प्रश्न और उत्तर होना चाहिये। हजामत बनाने, छींकने, स्नान और भोजन करने के बाद हरेक मनुष्य को तथा सभी अवस्थाओं में सम्पूर्ण रोगियों का कर्तव्य है कि वे ब्राह्मणों को प्रणाम आदि से प्रसन्न करें। इससे उनकी आयु बढ़ती है। सूर्य की ओर मुंह करके पेशाब न करे। अपनी विष्ठापर दृष्टि न डाले। स्त्री के साथ एक शय्यापर सोना और एक थाली में भोजन करना छोड़ दे। अपने से बड़ों का नाम लेकर या तू कहकर न पुकारे, जो अपने से छोटे या समवयस्क हों, उनके लिये वैसा करना दोष की बात नहीं है। पापियों का हृदय तथा उनके नेत्र और मुख आदि का विकार ही उनके पापों को बता देता हैं। जो लोग जान–बूझकर किये हुए पाप को महापुरूषों से छिपाते हैं, वे गिर जाते हैं। मूर्ख मनुष्य ही जान–बूझकर किये हुए पाप को छिपाता है। यद्यपि उस पाप को मनुष्य नहीं देखते हैं, तो भी देवतालोग तो देखते ही हैं। पापी मनुष्य का पाप के द्वारा छिपाया हुआ पाप पुन: उसे पाप में ही लगाता है और धर्मात्मा का धर्मत: गुप्त रक्खा हुआ धर्म उसे पुन: धर्म में ही प्रवृत्त करता है। मूर्ख मनुष्य अपने किये हुए पाप को याद नहीं रखता; परंतु पाप में प्रवृत हुए कर्ता का पाप स्वयं ही उसके पीछे लगा रहता है, जैसे राहु चन्द्रमा के पास स्वत: पहुंच जाता है, उसी प्रकार उस मूढ़ मुनष्य के पास उसका पाप स्वयं चला जाता है। किसी विशेष कामना की पूर्ति की आशा से जो धन संचित करके रखा गया है, उसका उपभोग दु:खपूर्वक ही किया जाता है, अत: विद्वान् पुरूष उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि मृत्यु किसी की कामना–पूर्ति के अवसर की प्रतीक्षा नहीं करती है। मनीषी पुरूषों का कथन है कि समस्त प्राणियों के लिये मनद्वारा किया हुआ धर्म ही श्रेष्ठ है; अत: मनसे सम्पूर्ण जीवों का कल्याण सोचता रहे। केवल वेदविधि का सहारा अकेले ही धर्म का आचरण करना चाहिये। उसमें सहायता की आवश्यकता नहीं है। कोई दूसरा सहायक आकर क्या करेगा? धर्म ही मनुष्यों की योनि है। वही स्वर्ग में देवताओं का अमृत है। धर्मात्मा मनुष्य मरने के पश्चात् धर्म के ही बल से सदा सुख भोगते हैं।
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