महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 205 श्लोक 18-26

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पचाधिकद्विशततम (205) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पचाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 18-26 का हिन्दी अनुवाद

उस अव्‍यक्‍त ब्रह्मा का बोध कराने के लिये इस संसार में कोई योग्‍य दृष्‍टान्‍त नहीं है । जहां वाणी का व्‍यापार ही नहीं है, उस वस्‍तु को कौन वर्णन का विषय बना सकता है। इसलिये तप से, अनुमान से, शम आदि गुणों से, जातिगत धर्मों के पालन से तथा शास्‍त्रों के स्‍वाध्‍यायसे अन्‍त:करण को विशुद्ध करके उसके द्वारा परब्रह्मा को प्राप्‍त करने की इच्‍छा करे। उक्‍त तपस्‍या आदि गुणों से रहित मनुष्‍य बाहर रहकर बाह्रा मार्ग का ही अनुसरण करता है । वह ज्ञेयस्‍वरूप परमात्‍मा गुणों से अतीत होने के कारण स्‍वभाव से ही तर्क का विषय नहीं है। जैसे अग्निसूखे काठ में विचरण करती है, उसी प्रकार बुद्धि भी शब्‍द, स्‍पर्श आदि गुणों में विचरती रहती है । जब वह उन गुणों का सम्‍बन्‍ध छोड़ देती है, तब निर्गुण होने के कारण ब्रह्मा को प्राप्‍त होती है और जब तक गुणों में आसक्‍त रहती है, तब तक गुणों से सम्‍बन्धित होने के कारण ब्रह्माको न पाकर लौट आती है। जैसे पांचों इन्द्रियां अपने कार्यरूप शब्‍द आदि गुणों से भिन्‍न हैं, उसी प्रकार परब्रह्मा परमात्‍मा भी प्रकृति से सर्वथा परे है। इस प्रकार समस्‍त प्राणी प्रकृति से उत्‍पन्‍न होते हैं । उस लय अथवा मृत्‍यु के पश्‍चात वे पुण्‍य और पाप के फलस्‍वरूप स्‍वर्ग और नरक में जाते है। पुरूष, प्रकृति, बुद्धि, पॉच विषय, दस इन्द्रियॉ, अंहकार, मन और पंच महाभूत–इन पचीस तत्‍वों का समूह ही प्राणी नाम से कहा जाता बुद्धि आदि तत्‍वसमूह की प्रथम सृष्टि प्रकृति से ही हुई है । तदनन्‍तर दूसरी बार से उनकी सामान्‍यत: मैथुन धर्म से नियमपूर्वक अभिव्‍यक्ति होने लगी है। धर्म करने से श्रेय की वृद्धि होती है और अधर्म करने से मनुष्‍य का अकल्‍याण होता है । विषयासक्‍त पुरूष प्रकृति को प्राप्‍त होता है और विरक्‍त आत्‍मज्ञान प्राप्‍त करके मुक्‍त हो जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व में मनु और बृहस्‍पतिका संवाद विषयक दो सौ पॉचवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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