महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 207 श्लोक 46-49

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सप्‍ताधिकद्विशततम (207) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्‍ताधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 46-49 का हिन्दी अनुवाद

कुरूश्रेष्‍ठ ! इस प्रकार महात्‍मा श्रीकृष्‍ण ने इस लोक को उत्‍पन्‍न किया। सबको मान देनेवाले नरेश ! महान देवता भगवान देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍ण तपस्‍यारूप ही हैं । उन्‍हीं की कृपा से तुम्‍हारे सारे दु:खों का नाश हो जायगा । एकमात्र जगत्‍स्‍त्रष्‍टा श्रीकृष्‍ण ज्ञानियों की पर‍मगति हैं। तपस्‍यारूप इन श्रीकृष्‍ण का आश्रय लेकर देवराज इन्‍द्र अन्‍यान्‍य देवता, रूद्रगण, दोनों अश्विनीकुमार तथा भोग और मोक्ष के तत्‍व को जाननेवाले महर्षि अपने-अपने पदपर प्रतिष्ठित रहते है। वे सम्‍पूर्ण प्राणियों के अन्‍तरात्‍मा हैं तथा नित्‍य वैकुण्‍डधाम में अपनी योगमाया से आवृत होकर निवास करते है। उनकी सता और महत्‍ता को तुम श्रवण करो, जिससे तुम्‍हें श्रीकृष्‍ण तत्‍व का ज्ञान हो जाय। पहलेकी बात है परमार्थ से सम्‍पन्‍न देवर्षि श्रीनारदजी भूमण्‍डल के सम्‍पूर्ण तीर्थो मे विचरण करते हुए घुम रहे थे। वे हिमालय के समीपवर्ती पर्वत पर बारंबार विचरण करके एक ऐसे स्‍थानपर गये,जहां उन्‍हें कमल और उत्‍पल से भरा हुआ एक सरोवर दिखायी दिया। तत्‍पश्‍चात महातेजस्‍वी पुरूषप्रवर नारद ने उस सरोवर में मौनभाव से स्‍नान करके इन्द्रियों को संयम मे उखकर उस भगवान के स्‍वरूप का अद्भूत रहस्‍य जानने के लिये भगवान की स्‍तुति की। तदनन्‍तर सौ वर्ष पूर्ण होनेपर लोकस्‍त्रष्‍टा विश्‍वात्‍मा भगवान हरि ऋषि के प्रति परम सौहार्दवश उनके सामने प्रकट हुए। नारदजी ने देखा,समस्‍त कारणों के भी कारण भगवान जगन्‍नाथ पधारे है ।उनके युगल चरणारविन्‍द सम्‍पूर्ण देवताओं के सुवर्णमय मुकुटों के कुंकुम से रक्‍तवर्ण हो रहे हैं । गरूड़जी के ऊपर सवारीकरने से उनके दोनों घुटनों में रगड़ पड़ने के कारण चिन्‍ह बन गये है; जो उन घुटनों की शोभा बढ़ा रहे हैं । उनके श्‍यामसुन्‍दर अंगपर पीताम्‍बर शोभा पा रहा है और कटिप्रदेश में किंकिणी की लड़ें बॅधी हुई हैं। वक्ष:स्‍थल में श्रीवत्‍स की सुनहरी रेखा शोभा पाती है । गले मे मनोहर कौस्‍तुभमणि अपना प्रकाश बिखेर रही है ।मुखारविन्‍द पर मन्‍द-मन्‍द मुस्‍कान की मनोहर छटा छा रही है । विशाल नेत्र चंचल गति से इधर-उधर देख रहे हैं ।झुके हुए दो धनुषों की भॉति बॉकी भौंहें उनके मुखमण्‍डलकी शोभा बढ़ा रही है। नाना प्रकार के रत्‍न, मणि और हीरों से जटित मकराकार कुण्‍डल जगमगा रहे हैं ।उनकी अंगकान्ति इन्‍द्र नीलमणि के समान श्‍याम है ।बॉहों में केयूर तथा मस्‍तकपर मुकुट की उज्‍जवल आभा छिटक रही है एवं इन्‍द्र आदि देवता और महर्षियों के समुदाय उनकी स्‍तुति करते हैं । नारदजी ने मस्‍तक झुकाकर उन्‍हें प्रणाम किया। तदनन्‍तर नारदजी को पृथ्‍वीपर पड़ा देख सम्‍पूर्ण भूतों के स्‍वामी श्रीमानभगवान नारायण ने मेघके समान गम्‍भीर वाणी में कहा। श्रीभगवान बोले–उत्‍तम व्रत का पालन करनेवाले देवर्षे ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो । तुम कोई वर मॉगो । तुम्‍हारे मन में जो अभिलाषा हुई हो, उसे स्‍पष्‍ट बताओ । मैं उसे पूर्ण करूँगा। भीष्‍मजी कहते हैं– युधिष्ठिर ! प्रेम से आतुर हुए मुनिवर नारद ने जय-जयकार करते हुए अपने हृदय में नित्‍य विराजमान रहनेवाले शंख, चक्र और गदाधारी भगवान से कहा–‘प्रभो ! प्रसन्‍न होइये । जगन्‍नाथ ! अच्‍युत ! ह्रर्षीकेश ! हरे ! मैं जो कुछ कहना चाहता हूं, वह आपको पहले से ही याद है मै उसी को सुनना चाहता हूं कृपा करे। तब मुस्‍कराते हुए भगवान महाविष्‍णु नारद जी से कहा-‘जो लोग शीत, उष्‍ण आदि द्वन्‍द्वों से रहित, अहंकार शून्‍य, पवित्र तथा निदोष दृष्टिवाले महात्‍मा हैं वे निरन्‍तर मेरे उस स्‍वरूप का साक्षात्‍कार करते हैं; अत: तुम यहां जो कुछ चाहते हो, उसके विषय में उन्‍हीं महात्‍माओं के पास जाकर प्रश्‍न करो। ‘देवर्षे ! जो लोग योगी और महाज्ञानी है;तथा जो मेरे अंशरूप से स्थित हैं, उनके प्रसाद को तुम मेरा ही कृपा प्रसाद समझो। ऐसा कहकर भूतभावन भगवान विष्‍णु वहॉ से चले गये; अत: युधिष्ठिर ! तुम भी सम्‍पूर्ण इन्द्रियों के स्‍वामी भगवान देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍ण की शरण में जाओ। इन भगवान गोविन्‍द की आराधना करके कितने ही महर्षि मुक्ति को प्राप्‍त हो गये हैं। ये ही जगत के सृष्टिकर्ता, संहारकर्ता और समस्‍त कारणों के भी कारण है। राजन ! मैंने भी यह बात नारदजी से ही सुनी है । तुम भी उनके मुख से सुन सकते हो । भगवान नारदमुनि ने स्‍वयं ही यह बात मुझसे कही थी। जो समस्‍त संसार-बन्‍धन की निवृत्ति के कारणभूत भगवान विष्‍णु की अनन्‍य चित्‍त से आराधना करते हैं, वे अत्‍यन्‍त दुर्लभ सायुज्‍य मोक्ष प्राप्‍त कर लेते हैं । यह बात सदा मेरे हृदय में बनी रहती है तथा ऋषि लोग भी इसका वर्णन करते है। सम्‍पूर्ण जगत को देखनेवाले देवर्षि नारद ने भगवान श्रीकृष्‍ण की महिमा का प्रतिपादन किया था। महाबाहु भरतश्रेष्‍ठ नरेश्‍वर ! नारदजी ने श्रीकृष्‍ण के परम सनातन परमात्‍म भाव को यथावत रूप से जाना और माना है। युधिष्ठिर ! इस प्रकार ये सत्‍यपराक्रमी कमलनयन महाबाहु केशव अचिन्‍त्‍य परमेश्‍वर हैं । इन्‍हें केवल मनुष्‍य नहीं मानना चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व में श्रीकृष्‍ण से सम्‍पूर्ण भूतों का उत्‍पत्ति विषयक दो सौ सातवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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