महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 210 श्लोक 18-34

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दशाधिकद्विशततम (210) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: दशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

काल क्रम से युगादि में जब-जब जो-जो वस्‍तु भासित होती है, लोक व्‍यवहारवश तब–तब उसी-उसी विषय का ज्ञान प्रकट होता रहता है। कल्‍प के अन्‍त में लुप्‍त हुए वेदों और इतिहासों को कल्‍प के आरम्‍भ में स्‍वयम्‍भू ब्रह्रा के आदेश से महर्षियों ने तपस्‍या द्वारा सबसे पहले उपलब्‍ध किया था। उस समय स्‍वयं भगवान् ब्रह्रा को वेदों का, बृहस्‍पतिजी को वेदांगोंका और शुक्राचार्य को नीति शास्‍त्र का ज्ञान हुआ तथा उन लोगों ने जगत् के हित के लिये उन सब विषयोंका उपदेश दिया। नारदजी को गान्‍धर्व वेद का, भरद्वाज को धनुर्वेद का, महर्षि गार्ग्‍य को देवर्षियों के चरित्र का तथा कृष्‍णात्रेय को चिकित्‍साशास्‍त्र का ज्ञान हुआ। तर्कशील विद्वानों ने तर्कशास्‍त्र के अनेक ग्रन्‍थों का प्रणयन किया । उन महर्षियों ने युक्ति युक्‍त शास्‍त्र और सदाचार के द्वारा जिस ब्रह्रा का उपदेश किया है, उसी की तुम भी उपासना करो। वह परब्रह्रा अनादि और सबसेपरे है । उसे न देवता जानते हैं न ऋषि । उसे तो एकमात्र जगत्‍पालक नारायण ही जानते हैं। नारायण से ही ऋषियों, मुख्‍य–मुख्‍य देवताओं, असुरों तथा प्राचीन राजर्षियों ने उस ब्रह्रा को जाना है; वह ब्रह्रा-ज्ञान ही समस्‍त दु:खों का परम औषध है। पुरूष द्वारा संकल्‍प में लाये गये विविध पदार्थो की रचना प्रकृति ही करती है । इस प्रकृति सर्वप्रथम कारण सहित उत्‍पन्‍न होता है। जैसे एक दीपक से दूसरे सहस्‍त्रों दीप जला लिये जाते हैं और पहलेदीपक को कोई हानि नहीं होती, उसी प्रकार एक प्रकृति ही असंख्‍य पदार्थो को उत्‍पन्‍न करती है और अनन्‍त होने के कारण उसका क्षय नही होता। अव्‍यक्‍त प्रकृति में क्षोभ होने पर जिस बुद्धि (महत्‍तत्‍व) की उत्‍पत्ति होती है, वह बुद्धि अंहकार को जन्‍म देती है । अहंकार से आकाश और आकाश से वायु की उत्‍पत्ति होती है। वायुसे अग्निकी, अग्नि से जल की और जल से पृथ्‍वी की उत्‍पत्ति हुई है । इस प्रकार ये आठ मूल प्रकृतियाँ बतायी गयी हैं । इन्‍हीं में सम्‍पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच विषय और एक मन –ये सोलह विकार कहे गये हैं ।(इनमें मन तो अहंकारका विकार है और अन्‍य पन्‍द्रह अपने-अपने कारणरूप सूक्ष्‍म महाभूतों के विकार है)। श्रोत्र, त्‍वचा, नेत्र, जिहवा और नासिका–ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । हाथ, पैर, गुदा, उपस्‍थ (लिंग) और वाक् – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध– ये पाँच विषय हैं तथा इनमें व्‍यापक जो चित्‍त है, उसी को मन समझना चाहिये । मन सर्वगत कहा गया है। रस ज्ञान के समय मन ही यह रसना (जिहवा) रूप हो जाता है तथा बोलने के समय वहमनही वागिन्द्रिय कहलाता है।इस प्रकार भिन्‍न-भिन्‍न इन्द्रियों के साथ मिलकर उन सबके रूप में मनही व्‍यक्‍त होता है। दस इन्द्रिय, पंच महाभूत और एक मन – ये सोलह तत्‍व इस शरीर में विभागपूर्वक रहते हैं । इनको देवतारूप जानना चाहिये । शरीर के भीतर जो ज्ञान प्रकट करनेवाला परमात्‍मा के निकटस्‍थ जीवात्‍मा है, उसकी ये सोलहों देवता उपासना करते हैं। जिहवा जल का कार्य है, घ्राणेन्द्रिय पृथ्‍वी का कार्य हैं, श्रवणेन्द्रिय आकाश का और नेत्रेन्द्रिय अग्नि का कार्य है तथा सम्‍पूर्ण भूतों में त्‍वचा नामकी इन्द्रिय को सदा वायु का कार्य समझना चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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