महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 171-188

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:५६, २० जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

तृतीय (3) अध्‍याय: आदि पर्व (पौष्य पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 171-188 का हिन्दी अनुवाद

हस्तिनापुर में शीघ्र पहुँच कर विप्रवर उत्तंक राजा जनमेजय से मिले। जनमेजय पहले तक्षशिला गये थे। वे वहाँ जाकर पूर्ण विजय पा चुके थे। उत्तंक ने मन्त्रियों से घिरे हुए उत्तम विजय से सम्पन्न राजा जनमेजय को देखकर पहले उन्हें न्याय पूर्वक जय सम्बन्धी आशीवार्द दिया। तत्पश्चात उचित समय पर उपयुक्त शब्दों से विभूषित वाणी द्वारा उनसे इस प्रकार कहा- नेृपश्रेष्ठ ! जहाँ तुम्हारे लिये करने योग्य दूसरा कार्य उपस्थित हो, वहाँ अज्ञान वश तुम कोई और ही कार्य कर रहे हो।

उग्रश्रवाजी कहते हैं- विप्रवर उत्तंक के ऐसा कहने पर राजा जनमेजय ने उन द्विजश्रेष्ठ का विधि पूर्वक पूजन किया और इस प्रकार कहा। जनमेजय बोले- ब्रह्मन! मैं इन प्रजाओं की रक्षा द्वारा अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करता हूँ। बताइये, आज मेरे करने योग्य कौन से कार्य उपस्थित हैं? जिसके कारण आप यहाँ पधारे हैं।

उग्रश्रवाजी कहते हैं- राजाओं में श्रेष्ठ जनमेजय के इस प्रकार कहने पर पुण्यात्माओं में अग्रगण्य विप्रवर उत्तंक ने उन उदार हृदय वाले नरेश से कहा-‘महाराज! वह कार्य मेरा नहीं आपका ही है, आप उसे अवश्य कीजिये’। इतना कहकर उत्तंक फिर बोले-भूपाल शिरोमणे! नागराज तक्षक ने आपके पिता की हत्या की है; अतः आप उस दुरात्मा सर्प से उसका बदला लीजिये। मैं समझता हूँ शत्रुनाशन कार्य की सिद्धि के लिये जो सर्प यज्ञ रूप कर्म शास्त्र में देखा गया है, उसके अनुष्ठान का यह उचित अवसर प्राप्त हुआ है। अतः राजन!अपने महात्मा पिता की मृत्यु का बदला आप अवश्य लें। यद्यपि आपके पिता महाराज परीक्षित ने कोई अपराध नहीं किया था तो भी उस दुष्टात्मा सर्प ने उन्हें डँस लिया और वे वज्र के मारे हुए वृक्ष की भाँति तुरंत ही गिरकर काल के गाल में चले गये। सर्पों में अधर्मी तक्षक अपने बल के घमण्ड से उन्मत्त रहता है। उस पापी ने यह बड़ा भारी अनुचित कर्म किया। वे माहराज परीक्षित राजर्षियों के वंश की रक्षा करने वाले और देवताओं के समान तेजस्वी थे, कश्यप नामक एक ब्राह्मण आपके पिता की रक्षा करने के लिये उसके पास आना चाहते थे, किंतु उस पापाचारी ने उन्हें लौटा दिया। अतः महाराज! आप सर्पयज्ञ का अनुष्ठान करके उसकी प्रज्वलित अग्नि में उस पापी को होम दीजिये और जल्दी से जल्दी यह कार्य कर डालिये।ऐसा करके आप अपने पिता की मृत्यु का बदला चुका सकेंगे एवं मेरा भी अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायेगा। समूची पृथ्वी का पालन करने वाले नरेश ! तक्षक बड़ा दुरात्मा है। पापरहित महाराज! मैं गुरू जी के लिये एक कार्य करने जा रहा था, जिसमें उस दुष्ट ने बहुत बड़ा विघ्न डाल दिया था।

उग्रश्रवाजी कहते हैं-महर्षियों ! यह समाचार सुनकर राजा जनमेजय तक्षक पर कुपित हो उठे। उत्तंक के वाक्य ने उनकी क्रोधाग्नि में घी का काम किया। जैसे घी की आहुति पड़ने से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वे क्रोध से अत्यन्त कुपित हो गये। उस समय राजा जनमेजय ने अत्यन्त दुखी होकर उत्तंक के निकट ही मन्त्रियों से पिता के स्वर्ग गमन का समाचार पूछा। उत्तंक के मुख से जिस समय उन्होंने पिता के मरने की बात सुनी, उसी समय वे महाराज दुःख और शौक में डूब गये।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।