महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-37

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पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-37 का हिन्दी अनुवाद

ज्ञानी पुरूषों के सम्पर्क से धर्मोपदेश सुनकर इन्द्रियों का निग्रह करने तथा संतोष और धैर्य धारण करने से दोषों का परित्याग किया जा सकता है। प्रिये! दोष-संयम को धर्म कहा गया है। संयमरूप धर्म का पालन करने से जो धर्म होता है, वही सबसे अधिक कल्याणकारी है, दूसरा नहीं। संयमधर्म के पालन से यतिजन उत्तम गति को पाते हैं। प्रभावशाली धनियों के दान करने से और दरिद्र मनुष्यों के शुभकर्मों के आचरण से भी दोषों का त्याग क्षणिक फल देने वाला है। महादेवि! तप और दान अल्प दोष को हर लेते हैं। यहाँ संयमसम्बन्धी सुकृत बताया गया। अब सहायक साधनों के बिना होने वाले सुकृत का वर्णन करूँगा। जगत् के लोगों के सुखी होने की कामना, सत्य, शौच, सरलता, व्रतसम्बन्धी उपवास, प्रीति, ब्रह्मचर्य, दम और शम- इत्यादि शुभ कर्म नियमों पर अवलम्बित सुकृत है। भामिनि! अब उनके विशेष भेदों का वर्णन करूँगा, सुनो। जैसे नौका या जहाज समुद्र से पार होने का साधन है, उसी प्रकार सत्य स्वर्गलोक में पहुँचने के लिये सीढ़ी का काम देता है। सत्य से बढ़कर दान नहीं है और सत्य से बढ़कर तप नहीं है। जो जैसा सुना गया हो, जैसा देखा गया हो और अपने द्वारा जैसा किया गया हो, उसको बिना किसी परिवर्तन के वाणी द्वारा प्रकट करना सत्य का लक्षण है। जो सत्य छल से युक्त हो, वह मिथ्या ही है। अतः सत्यासत्य के भले-बुरे परिणाम को जानने वाले पुरूष को चाहिये कि वह सदा सत्य ही बोले। सत्य के पालन से मनुष्य दीर्घायु होता है। सत्य से कुल-परम्परा का पालक होता है और सत्य का आश्रय लेने से वह लोक-मर्यादा का संरक्षक होता है। उमा ने पूछा- भगवन्! मनुष्य किस प्रकार व्रत धारण करके शुभ फल को पाता है? श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! पहले जो मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा होने वाले पापों कावर्णन किया गया है, व्रत की भाँति उनके त्याग का नियम लेना तपोव्रत कहा गया है। मनुष्य तीर्थ में विधिपूर्वक स्नान करके शुद्ध शरीर हो स्वयं ही अपने आपको पंच महाभूत, चन्द्रमा, सूर्य, दोनों काल की संध्या, धर्म, यम तथा पितरों की सेवा में निवेदन करके व्रत लेकर धर्माचरण करे। अपने व्रत को मृत्युपर्यन्त निभावे अथवा समय की सीमा बाँधकर उतने समय तक उसका निर्वाह करे। शाक आदि तथा फल-फूल आदि का आहार करके व्रत करे। उस समय ब्रह्मचर्य का पालन तथा उपवास भी करना चाहिये। अपना हित चाहने वाले पुरूष को दुग्ध आदि अन्य बहुत सी वस्तुओं में से किसी एक का उपयोग करके व्रत का पालन करना चाहिये। विद्वानों को उचित है कि वे अपने व्रत को भंग न होने दें। सब प्रकार से उसकी रक्षा करें। शुभेक्षणे! तुम यह जान लो कि व्रत भंग करने से महान् पाप होता है, परंतु ओषधि के लिये, अनजान में, गुरूजनों की आज्ञा से तथा बन्धुजनों पर अनुग्रह करने के लिये यदि व्रतभंग हो जाय तो वह दूषित नहीं होता। व्रत की समाप्ति के समय मनुष्य को देवताओं और ब्राह्मणों की यथावत् पूजा करनी चाहिये। इससे उसे अपने कार्य में सफलता प्राप्त होती है। उमा ने पूछा- भगवन्! व्रत ग्रहण करने के समय शौचाचार का विधान कैसा है? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! शौच दो प्रकार का माना गया है- एक ब्राह्य शौच, दूसरा आभ्यन्तर शौय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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