महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 39-48
इक्यावनावॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
गौऍं सदा लक्ष्मीजीकी जड़ है। उनमें पापका लेशमात्र भी नहीं है। गौऍं ही मनुष्योंको सर्वदा अन्न और देवताओंको हविष्य देनेवाली है। स्वाहा और वषट्कार सदा गौओंमे ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौऍं ही यज्ञका संचालन करनेवाली तथा उसका मुख हैं।वे विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती और दुहनेपर अमृत ही देती हैं। वे अमृतकी आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्तक होता है। इस पृथ्वीपर गौऍं अपनी काया और कान्तिसे अग्निके समान हैं। वे महान् तेजकी राशि और समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाली हैं। गौओंका समुदाय जहॉं बैठकर निर्भयतापूर्वक सॉंस लेता है, उस स्थानकी शोभा बढ़ा देता है। और वहॉंके सारे पापोंको खीचं लेता है। गौऍं स्वर्गकी सीढी हैं। गौऍं स्वर्गमें भी पूजा जाती हैं। गौऍं समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवी हैं और वहॉंके सारे पापोंको खींच लेता हैं। गौऍं स्वर्गकी सीढ़ी है। गौऍं स्वर्गमें भी पूजी जाती हैं। गौऍं समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवियॉं हैं।उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। भरतश्रेष्ठ ! यह मैंने गौओंका माहात्म्य बताया है। इसमें उनके गुणोंका दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। गौओंके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो कोई कर नहीं सकता। इसके बाद निषादोंने कहा- मुने ! सज्जनोंके साथ सात पग चलनेमात्रसे मित्रता हो जाती है। हमने तो आपका दर्शन किया और हमारे साथ आपकी इतनी देरतक बातचीत भी हुई; अत: प्रभो ! आप हमलोगोंपर कृपा कीजिये। धर्मात्मन् ! जैसे अग्निदेव सम्पूर्ण हविष्योंको आत्मसात् कर लेते हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे दोष-दुगुर्णोको दग्ध करनेवाले प्रतापी अग्निरुप है। विद्वन ! हम आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करना चाहते हैं। आप हमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये हमारी दी हुई यह गौ स्वीकार कीजिये। अत्यन्त आपतिमें डूबे हुए जीवोंका उध्दार करनेवाले पुरुषोंको जो उतम गति प्राप्त होती है, वह आपको विदित है। हमलोग नरकमें डूबे हुए है। आज आप ही हमें शरण देनेवाले हैं। च्यवन बोले- निषादगण ! किसी दीन-दुखियाकी, ॠषिकी तथा विषधर सर्पकी रोषपूर्ण दृष्टी मनुष्यको उसी प्रकार जड़मुलासहित जलाकर भस्म कर देती हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि सूखे घास-फुसके ढेरको। मल्लाहो ! मैं तुम्हारी दी हुई गौ स्वीकार करता हॅू। इस गोदानके प्रभावसे तुम्हारे सारे पाप दूर हो गये।अब तुमलोग जलमें पैदा हुई इन मछलियोंके साथ ही साथ शीघ्र स्वर्ग को जाओ। भीष्मजी कहते हैं- भारत ! विशुध्द अन्त:करणवाले उन महर्षि च्यवनके पूर्वोक्त बात कहते ही उनके प्रभावसे वे मल्लाह उन मछलियोंके साथ ही स्वर्गलोकको चले गये। भरतश्रेष्ठ ! उस समय मल्लाहों और मत्स्योंको भी स्वर्गलोककी ओर जाते देख राजा नहुषको बड़ा आश्चर्य हुआ। तत्पश्चात् गौसे उत्पन्न महर्षि और भृगुनन्दन च्यवन दोनोंने राजा नहुषसे इच्छानुसार वर मॉंगनेके लिये कहा। भरतभूषण, तब वे महापराक्रमी भूपाल राजा नहुष प्रसन्न होकर बोले- ‘बस, आपलोगोंकी कृपा ही बहुत है‘। फिर दोनोंके आग्रहसे उन इन्द्रके समान तेजस्वी नरेश ने धर्ममें स्थित रहनेका वरदान मॉंगा और उनके तथास्तु कहनेपर राजाने उन दोनों ॠषिर्योंका विधिवत् पूजन किया। उसी दिन महर्षि च्यवनकी दीक्षा समाप्त हुई और वे अपने आश्रमपर चले गये। इसके बाद महातेजस्वी गोजात मुनि भी अपने आश्रमको पधारे। नरेश्वर ! वे मल्लाह और मत्स्य तो स्वर्गलोकमें चले गये और राजा नहुष भी वर पाकर अपनी राजधानी लौट आये। तात युधिष्ठिर ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने यह सारा प्रसंग सुनाया है। दर्शन और सहवाससे कैसा स्नेह होता है? गौओंका माहात्म्य क्या है ? तथा इस विषयमें धर्मका निश्चय क्या है? ये सारी बातें इस प्रसंगसे स्पष्ट हो जाता है। अब मैं तुम्हें कौन-सी बात बताउ? वीर ! तुम्हारे मनमें क्या सुननेकी इच्छा है?
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