महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 63 श्लोक 38-52

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तिरसठवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तिरसठवाँ अध्याय: श्लोक 30-52 का हिन्दी अनुवाद

भारत। अन्न से ही संतान की उत्पत्ति होती है। अन्न से ही रति की सिद्वि होती है। अन्न से ही धर्म और अर्थ की सिद्वि समझो। अन्न से ही रोगों का नाश होता है । पूर्व कल्प में प्रजापति ने अन्न को अमृत बतलाया है। भूलोक, स्वर्ग और आकाश अन्न रूप ही हैं; क्योंकि अन्न ही सबका आधार है । अन्न का आहार न मिलने पर शरीर में रहने वाले पांचों तत्व अलग-अलग हो जाते हैं। अन्न की कमी हो जाने से बड़े-बड़े बलवानों का बल भी क्षीण हो जाता है । निमंत्रण, विवाह और यज्ञ भी अन्न के बिना बन्द हो जाते है। नरश्रेष्ठ। अन्न न हो तो वेदों का ज्ञान भी भूल जाता है । यह जो कुछ भी स्थावर- जंगम रूप जगत है सब-का-सब अन्न के ही आधार पर टिका हुआ है। अतः बुद्विमान पुरूषों का चाहिये कि तीनों लोकों में धर्म के लिये अन्न का दान अवश्‍य करें। पृथ्वीनाथ। अन्न दान करने वाले मनुष्य के बल, ओज, यश और कीर्ति का तीनों लोकों में सदा ही विस्तार होता रहता है । भारत। प्राणों का स्वामी पवन मेघों के ऊपर स्थित होता है और मेघ में जो जल है, उसे इन्द्र धरती पर बरसाते हैं । सूर्य अपनी किरणों से पृथ्वी के रसों को ग्रहण करते हैं। वायुदेव सूर्य से उन रसों को लेकर फिर भूमि पर बरसाते हैं । भरतनन्दन। इस प्रकार जब मेघ से पृथ्वी सेजल गिरता है, तब पृथ्वी देवी स्निगध (गीली) होती है । फिर उस गीली धरती से अनाज के अंकुर उत्पन्न होते हैं, जिससे जगत के जीवों का निर्वाह होता है। अन्न से ही शरीर में मांस, मेदा, अस्थि और वीर्य का प्रादुर्भाव होता है । पृथ्वीनाथ। उस वीर्य से प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अग्नि और सोम उस वीर्य की सृष्टि और पुष्टि करते हैं । इस तरह सूर्य, वायु, और वीर्य एक ही राशि हैं जो अन्न से प्रकट हुए हैं। उन्हीं से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति हुई है। भरतश्रेष्ठ। जो घर पर आये हुए याचक को अन्न देता है, वह सब प्राणियों का प्राण और तेज का दान करता है। भीष्मजी कहते हैं- नरेश्‍वर। जब नारद जी ने मुझे इस प्रकार अन्न-दान का महात्म्य बतलाया तब से मैं नित्य अन्न का दान किया करता था। अतः तुम भी दोष दृष्टि और जलन छोड़कर सदा अन्न-दान करते रहना । राजन। प्रभो। तुम सुयोग्य ब्राह्माणों को विधि पूर्वक अन्न का दान करके उसके पुण्य से स्वर्गलोक को प्राप्त कर लोगे । नरेश्‍वर। अन्न-दान करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं, उनका परिचय देता हूं, सुनो। स्वर्ग में उन महामनस्वी अन्नदाताओं के घर प्रकाशित होते रहते हैं । उन गृहों की आकृति तारों के समान उज्वल और अनेकानेक खंभों से सुशोभित होती है। वे गृह चन्द्रमण्डल के समान उज्वल प्रतीत होते हैं। उन पर छोटी-छोटी घंटियों से युक्त झालरें लगी हैं । उनमें से कितने ही भवन प्रातःकाल के सूर्य की भांति लाल प्रभा से युक्त हैं, कितने ही स्थावर हैं और कितने ही विमानों के रूप में विचरते रहते हैं। उनमें सैकड़ों कक्षाऐं और मंजिलें होती हैं। उन घरों के भीतर जलचर जीवों सहित जलाशय होते हैं। कितने ही घर वैदूर्यमणिमय (नील) सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। कितने ही चांदी और सोने के वने हुए हैं। उन भवनों में अनेकानेक वृक्ष शोभा पाते हैं जो संपूर्ण मनवांछित फल देने वाले हैं । उन गृहों में अनेक प्रकार की बावडि़यां, गलियां, सभा भवन, कूप, तालाब और गंभीर घोष करने वाले सहस्त्रों जुते रथ आदि वाहन होते हैं । वहां भक्ष-भोज्य पदार्थों के पर्वत, वस्त्र और आभूषण हैं। वहां की नदियां दूध वहाती हैं। अन्न के पर्वतोंपम ढेर लगे रहते हैं। उन भवनों में सफेद बादलों के समान अट्टालिकाऐं और सुवर्ण निर्मित प्रकाशपूर्ण शैय्याऐं शोभा पाती हैं। वे महल अन्नदाता पुरूषों को प्राप्त होते हैं; इसलिये तुम भी अन्न दान करो। ये पुण्य जनित लोक अन्न दान करने वाले महामनस्वी पुरूषों को प्राप्त होते हैं। अतः इस पृथ्वी पर सभी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक अन्न का दान करना चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें अन्नदान प्रशंसाविषयक तिरसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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