महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 74 श्लोक 1-15

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चौहत्तरवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: चौहत्तरवाँ अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

दूसरों की गाय को चुराकर देने या बेचने से दोष, गोहत्‍या के भयंकर परिणाम तथा गोदान एवं सुवर्ण- दक्षिणा का माहात्‍म्‍य इन्द्र ने पूछा- पितामह। यदि कोई जान-बूझकर दूसरे की गौ का अपहरण करें और धन के लोभ से उसे बेच डाले, उसकी परलोक में क्या गति होती है? यह मैं जानना चाहता हूं। व्रम्हाजी ने कहा- इन्द्र जो खाने, बेचने या ब्राह्माणों को दान करने के लिये दूसरे की गाय चुराते हैं, उन्हें क्या फल मिलता है, यह सुनो। जो उच्छृंखल मनुष्य मांस बेचने के लिये गौ की हिंसा करता या गौ मांस खाता है तथा जो स्वार्थवश घातक पुरूष को गाय मारने की सलाह देते हैं, वे सभी महान पाप के भागी होते हैं। गौ की हत्या करने वाले, उसका मांस खाने वाले तथा गौ हत्या का अनुमोदन करने वाले लोग गौ के शरीर में जितने रोये होते हैं, उतने वर्षों तक नरक में डूवे रहते हैं। प्रभो।ब्राह्माण के यज्ञ का नाश करने वाले पुरूष को जैसे और जितने पाप लगते हैं, दूसरों की गाय चुराने और बेचने में भी वे ही दोष वताये गये हैं। जो दूसरों की गाय चुराकर ब्राह्माण को दान करता है, वह गोदान का पुण्य भोगने के लिये जितना समय शास्त्रों में बताया गया है, उतने ही समय तक नरक भोगता है। महातेजस्वी इन्द्र। गोदान में कुछ सुवर्ण की दक्षिणा देने का विधान है। दक्षिणा के लिये सुवर्ण सबसे उत्तम बताया गया है। इसमें संशय नहीं है। मनुष्य गोदान करने से अपनी सात पीढ़ी पहले के पितरों का और सात पीढ़ी आगे आने वाली संतानों का उद्वार करता है; किंतु यदि उसके साथ सोने की दक्षिणा भी दी जाये तो उस दान का फल दूना बताया गया है। क्योंकि इन्द्र। सुवर्ण का दान सबसे उत्तम दान है। सुवर्ण की दक्षिणा सबसे श्रेष्ठ है, तथा पवित्र करने वाली वस्तुओं में सुवर्ण ही सबसे अधिक पावन माना गया है। महातेजस्वी शतक्रतो। सुवर्ण सम्पूर्ण कुलों को पवित्र करने वाला बताया गया है। इस प्रकार मैंने तुमसे संक्षेप में यह दक्षिणा की बात बतायी। भीष्मजी कहते हैं- भरत श्रेष्ठ युधिष्ठिर । यह उपर्युक्त उपदेशब्रह्माजी ने इन्द्र को दिया। इन्द्र ने राजा दशरथ को तथा दशरथ ने अपने पुत्र श्रीरामचन्द्र जी को दिया। प्रभो। श्री रामचन्द्रजी ने भी अपने प्रिय एवं यशस्वी भ्राता लक्ष्मण को इसका उपदेश दिया फिर लक्ष्मण ने भी वनवास के समय ऋषियों को यह बात बतायी। इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस दुर्धर उपदेश को उत्तम व्रत का पालन करने वाले ऋषि और धर्मात्मा राजा लोग धारण करते आ रहे हैं। युधिष्ठिर । मुझसे मेरे उपाध्याय (परशुराम जी) ने इस विषय का वर्णन किया था। जो ब्राह्माण अपनी मण्डली में बैठकर प्रतिदिन इस उपदेश को दोहराता है और यज्ञ में, गोदान के समय तथा दो व्यक्तियों के भी समागम में इसकी चर्चा करता है, उसको सदा देवताओं के साथ अक्षय लोक प्राप्त होते हैं। यह बात भी परमेश्‍वर भगवान ब्रम्हा ने स्वयं ही इन्द्र को बतायी है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें चौहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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