महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 श्लोक 1-17

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षडधिकशततम (106) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह। सभी वर्णों और म्लेच्छ जाति के लोग भी उपवास में मन लगाते हैं, किंतु इसका क्या कारण है? यह समझ में नहीं आता । पितामह। सुनने में आया है कि ब्राह्माण और क्षत्रियों को नियमों का पालन करना चाहिये; परंतु उपवास करने से किस प्रकार उनके प्रयोजन की सिद्वि होती है, यह नहीं जान पड़ता है । पृथ्वीनाथ। आप कृपा करके हमें सम्पूर्ण नियमों और उपवासों की विधि बताइये। तात। उपवास करने वाला मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है । नरेश्रेष्ठ। कहते हैं, उपवास बड़ा पुष्य है और उपवास सबसे बड़ा आश्रय है; परंतु उपवास करके यहां मनुष्य यहां कौनसा फल पाता है? भरतश्रेष्ठ। मनुष्य किस कर्म के द्वारा पाप से छुटकारा पाता है और क्या करने से किस प्रकार उसे धर्म की प्राप्ति होती है? वह पुण्य और स्वर्ग कैसे पाता है? नरेश्‍वर। उपवास करके मनुष्य को किस वस्तु का दान करना चाहिये? जिस धर्म से सुख और धन की प्राप्ति हो सके, वही मुझे बताइये । वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय। धर्मज्ञ धर्मपुत्र कुन्ती कुमार युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर धर्म के तत्व को जानने वाले शांतनुनन्दन भीष्म ने उनसे इस प्रकार कहा । भीष्मजी ने कहा- राजन। भरतश्रेष्ठ। उपवास करने में जो श्रेष्ठ गुण है, उनके विषय में मैंने प्राचीन काल में इस तरह सुन रखा है । भारत। जिस तरह आज तुमने मुझसे प्रश्‍न किया है इसी प्रकार मैंने भी पूर्व काल में तपोधन अंगिरा मुनि से प्रश्‍न किया था । भरतभूष। जब मैंने यह प्रश्‍न पूछा तब अग्निनन्दन भगवान अंगिरा ने मुझे उपवास की पवित्र विधि इस प्रकार बताई । अंगिरा बोले- कुरूनन्दन। ब्राह्माण और क्षत्रीय के लिये तीन रात उपवास करने का विधान है। कहीं-कहीं दो त्रिरात्र और एक दिन अर्थात कुल सात दिन उपवास करने का संकेत मिला है । वैष्यों और सूद्रों ने जो मोहवश तीन रात अथवा दो रात का उपवास किया है, उसका उन्हें कोई फल नहीं मिला है । वैष्य और सूद्र के लिये चैथे समय तक के भोजन के त्याग करने का विधान है। अर्थात उन्हें केवल दो दिन और दो रात्रि तक उपवास करना चाहिये; क्योंकि धर्मशास्त्र के ज्ञाता एवं धर्मदर्शी विद्वानों के उनके लिये तीन रात तक उपवास करने का विधान नहीं किया है । भारत। यदि मनुष्य पंचमी, शष्ठी और पूर्णिमा के दिन अपने मन और इन्द्रियांे को काबू में रखकर एक वक्त भोजन करके दूसरे वक्त उपवास करे तो वह क्षमावान, रूपवान और विद्ववान होता है। वह बुद्धिमान पुरूष कभी संतानहीन या दरिद्र नहीं होता है । करूनन्दन। जो पुरूष भगवान की आराधना को इच्छुक होकर पंचमी, शष्ठी, अष्टमी तथा कृष्णपक्ष की चर्तुदशी को अपने घर पर ब्राह्माण को भोजन कराता है और स्वयं उपवास करता है, वह रोग रहित और बलवान होता है । जो मार्गशीर्ष मास को एक समय भोजन करके बिताता है और अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्माण को भोजन कराता है, वह रोग और पापों से मुक्त हो जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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