महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 112-131

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:३३, २१ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)=...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 112-131 का हिन्दी अनुवाद

सम्पूर्ण रत्नों से अलंकृत स्फटिक मणिमय दिव्य विमानों से सम्पन्न हो गन्धर्वों और अप्सराओं द्वारा पूजित होता हुआ दिव्य तेज से युक्त हो देवताओं के दो हजार दिव्य युगों तक वह उन लोकों में आनन्द भोगता है । जो बाहर महीनों तक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ हर सत्ताईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह प्रचुर फल का भागी होता और देवलोक में सम्मान पाता है । वहां उसे अमृत का आहार प्राप्त होाता है तथा वह तृष्णारहित हो वहां रहकर आनन्द भोगता है। राजन। वह दिव्यरूपधारी पुरूष राजर्षियों द्वारा वर्णित देवर्षियों के चरित्र का श्रवण-मनन करता है और श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ हो मनोरम सुन्दरियों के साथ मदोन्मत्त भाव से रमण करता हुआ तीन हजार युगों एवं कल्पों तक वहां सुखपूर्वक निवास करता है । जो बारह महीनों तक सदा अपने मन और इन्द्रियों को काबू में रखकर अठ्ठाईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह देवर्षियों को प्राप्त होने वाले महान् फल का उपभोग करता है । वह भोग से सम्पन्न हो अपने तेज से निर्मल सूर्य की भांति प्रकाशित होता है और सुन्दर कान्तिवाली, पीन, उरोज, जांघ और जघन प्रदेशवाली, दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित सुकुमारी रमणियां सूर्य के समान प्रकाशित और सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति कराने वाले मनोरम दिव्य विमान पर बैठ कर उस पुण्यात्मा पुरूष का दस लाख कल्पों के वर्षों तक मनारंजन करती है । जो बारह महीनों तक सदा सत्यव्रत के पालन में तत्पर हो उन्तीसवें दिन एक बार भोजन करता है, उसे देवर्षियों तथा राजर्षियों द्वारा पूजित दिव्य मंगलमय लोक प्राप्त होते हैं । वह सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित, सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित तथा आवश्‍यक सामग्रियों से युक्त सुवर्णमय दिव्य विमान प्राप्त करता है । उस विमान में अप्सराऐं भरी रहती हैं, गन्धर्वों के गीतों की मधुर ध्वनि से वह बिमान गूंजता रहता है, उस विमान में दिव्य आभूषणों से विभूषित, शुभ लक्षमण सम्पन्न, मनोभिराम, मदमत्त एवं मधुरभाषिणी रमणियां उस पुरूष का मनोरंजन करती हैं । वह पुरूष भोगसम्पन्न, तेजस्वी, अग्नि के समान दीप्तिमान्, अपने दिव्य शरीर से देवता की भांति प्रकाशमान तथा दिव्यभाव से युक्त हो वसुओं, मरूद्गणों, साध्यगणों, अश्विनीकुमारों, रूद्रों तथा ब्रह्माजी के लोक में भी जाता है । जो बारह महीनों तक प्रत्येक मास व्यतीत होने पर तीसवें दिन एक बार भोजन करता और सदा शान्तभाव से रहता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है । वह वहां सुधारस का भोजन करता और सबके मन को हर लेने वाला कान्तिमान् रूप धारण करता है। वह अपने तेज, सुन्दर शरीर तथा अंगकान्ति से सूर्य की भांति प्रकाशित होता है । दिव्यमाला, दिव्यवस्त्र, दिव्यगन्ध और दिव्य अनुलेपन धारण करके वह भोग की शक्ति और साधन से सम्पन्न हो सुख-भोग में ही रत रहता है। दुःखों का उसे कभी अनुभव नहीं होता है । वह विमान पर आरूढ़ हो अपनी ही प्रभा से प्रकाशित होने वाली दिव्य नारियों द्वारा सम्मानित होता है। रूद्रों तथा देवर्षियों की कन्याऐं सदा उसकी पूजा करती हैं। वे कन्याऐं नाना प्रकार के रमणीय रूप, विभिन्न प्रकार के राग, भांति-भांति की मधुर भाषणकला तथा अनेक तरह की रति-क्रीड़ाओं से सुशोभित होती हैं ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।