महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 215 श्लोक 1-14

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:१७, २२ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==पचदशाधिकद्विशततम (215) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पचदशाधिकद्विशततम (215) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पचदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

आ‍सक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्रा की प्राप्ति के लिये प्रयत्‍न करने का उपदेश

भीष्‍म जी कहते है – युधिष्ठिर ! इन्द्रियों के विषयों का पार पाना बहुत कठिन है । जो प्राणी उनमे आसक्‍त होते हैं वे दु:ख भोगते रहते हैं; और जो महात्‍मा उनमें आसक्‍त नहीं होते वे परमगति को प्राप्‍त होते हैं। यह जगत् जन्‍म, मृत्‍यु और वृद्धावस्‍था के दु:खों नाना प्रकार के रोगों तथा मानसिक चिन्‍ताओं से व्‍याप्‍त हैं; ऐसा समझकर बुद्धिमान पुरूष को मोक्ष के लिये ही प्रयत्‍न करना चाहिये। वह मन, वाणी और शरीर से पवित्र रहकर अहंकारशून्‍य, शान्‍तचित्‍त, ज्ञानवान् एवं नि:स्‍पृह होकर भिक्षावृत्ति से निर्वाह करता हुआ सुर्खपूर्वक विचरे। अथवा प्राणियों पर दबा करतेरहने से भी मोहवश उनके प्रति मन में आसक्ति हो जाती है । इस बात पर दृष्टिपात करे और यह समझकर कि सारा जगत् अपने-अपने कर्मों का फल भोग रहा है, सबके प्रति उपेक्षाभाव रखे। मनुष्‍य शुभ या अशुभ जैसा भी कर्म करता है उसका फल उसे स्‍वयं ही भोगना पड़ता है; इसलिये मन, बुद्धि और क्रिया के द्वारा सदा शुभ कर्मों का ही आचरण करे। अहिंसा, सत्‍यभाषण, समस्‍त प्राणियोंके प्रति सरलतापूर्वक बर्ताव, क्षमा तथा प्रमादशून्‍यता- ये गुण जिस पुरूष में विद्यमान हों, वही सुखी होता है। जो मनुष्‍य इस अहिंसा आदि परम धर्म को समस्‍त प्राणियों के लिये सुखद और दु:खनिवारक जानता है, वही सर्वज्ञ है और वही सुखी होता है। इसलिये बुद्धि के द्वारा मन को समाहित करके समस्‍त प्राणियों में स्थित परमात्‍मा में लगावे । किसी का अहित न सोचे, असम्‍भव वस्‍तु की कामना न करे, मिथ्‍या पदा‍र्थों की चिन्‍ता न करे और सफल प्रयत्‍न करके मन को ज्ञान के साधन में लगा दे । वेदान्‍त –वाक्‍यों के श्रवण तथा सुदृढ़ प्रयत्‍न से उत्‍तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। जो सूक्ष्‍म धर्म को देखता और उत्‍तम वचन बोलना चाहता हो, उसको ऐसी बात कहनी चाहिये जो सत्‍य होने के साथ ही हिंसा और परनिन्‍दा से रहित हो । जिसमें शठता, कठोरता, क्रूरता और चुगली आदि दोषों का सर्वथा अभाव हो, ऐसी वाणी भी बहुत थोड़ी मात्रा में और सुस्थिर चित्‍त से बोलनी चाहिये। संसार का सारा व्‍यवहार वाणी से ही बॅधा हुआ हैं, अत: सदा उत्‍तम वाणी ही बोले और यदि वैराग्‍य हो तो बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके अपने किये हुए हिंसादि तामस कर्मों को भी लोगो से कह दे (क्‍योंकि प्रकाशित कर देने से पाप की मात्रा घट जाती है)। रजोगुण से प्रभावित हुई इन्द्रियों की प्रेरणा से मनुष्‍य विषय भोगरूप कर्मों में प्रवृत्‍त होता है और इस लोक में दु:ख भोगकर अन्‍तमें नरकगामी होता है । अत: मन, वाणी और शरीर द्वारा ऐसा कार्य करे जिससे अपने को धैर्य प्राप्‍त हो। जैसे चोर या लुटेरे किसी की भेड़ को मारकर उसे कंधे पर उठाये हुए जब तक भागते हैं तब तक उन्‍हें सारी दिशाओं में पकड़े जाने का भय बना रहता है; और जब मार्ग को प्रतिकूल समझकर उस भेड़ के बोझ को अपने कंधे से उतार फेंकते हैं तब अपनी अभीष्‍ट दिशा को सुखपूर्वक चले जाते हैं । उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्‍य जब तक सांसारिक कर्मरूप बोझ को ढोते है तब तक उन्‍हें सर्वत्र भय बना रहता है; और जब उसे त्‍याग देते हैं, तब शान्ति के भागी हो जाते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।