महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 219 श्लोक 32-45

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एकोनविंशत्यधिकद्विशततम (219) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद

शब्‍द का आधार श्रोत्रेन्द्रियहै और श्रोत्रेन्द्रिय का आधार आकाश है; अत: वह आकाशरूप ही है । ऐसी स्थिति में शब्‍द का अनुभव करते समय आकाश और श्रोत्र – ये दोनों ही ज्ञान अथवा अज्ञान के विषय नहीं होते हैं[१]। इसी प्रकार त्‍वचा, नेत्र, जिह्रवा और नासिका भी क्रमश: स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍ध के आश्रय तथा अपने आधारभूत महाभूतों के स्‍वरूप हैं । इन सबका कारण मन है, इसलिये ये सब-के-सब मन:स्‍वरूप हैं। इन दसों इन्द्रियों में अपने-अपने विषयों को एक साथ भी ग्रहण करने की शक्ति होती है । ग्‍यारहवॉ मन और बारहवी बुद्धि – इनकों इन्द्रियों का सहायक समझना चाहिये। तमोगुणजनित सु‍षुप्तिकाल में अपने कारण में विलीन हो जाने से इन्द्रियाँ विषयोंका ग्रहण नहीं कर सकतीं, किंतु उनका नाश नहीं होता है । उनमें जो अपने विषयों को एक साथ ग्रहण करने की शक्ति है, वह लौकिक व्‍यवहार मे ही दिखायी देती है (सुषुप्तिकाल में नहीं )। पहले जाग्रत् अवस्‍था के देखने-सुनने आदि के द्वारा पूर्ववासनावश शब्‍द आदि विषयों की प्राप्ति होने से स्‍वप्‍नदर्शी पुरूष सूक्ष्‍म ग्‍यारह इन्द्रियों को देखकर विषयसंग की भावना करता हुआ सत्‍व आदि तीनों गुणों से युक्‍त हो शरीर के भीतर ही इच्‍छानुसार घूमता रहता है। सुषुप्तिकाल में जब चित्‍त तमोगुण से अभिभूत होकर अपने प्रवृत्ति और प्रकाश स्‍वभाव का शीघ्र ही संहार करके थोड़ी देर के लिये इन्द्रियों के व्‍यापार को बंद कर देता है, उस समय शरीर में जो सुख की प्रतीति होती है, उसे विद्वान् पुरूष तामस सुख कहते हैं। सुषुप्तिकाल मे स्‍वप्‍नदर्शी पुरूष उपस्थित दु:ख को प्रत्‍यक्ष की भाँति अनुभव नहीं करता है । इसलिये वह सुषुप्तिकाल में भी तमोगुणयुक्‍त मिथ्‍या सुख का अनुभव करता है। इस प्रकार अपने कर्म के अनुसार गुण की प्राप्ति के विषय में कहा गया हैं । अज्ञानियों के ये गुण सम्‍यकरूपेण प्रवृत्‍त होते हैं और ज्ञानियों के निवृत्‍त हो जाते हैं। अध्‍यात्‍मतत्‍व का चिन्‍तन करनेवाले विद्वान् इस शरीर और इन्द्रियों के संघात को क्षेत्र कहते हैं और मन में जो चेतना सत्‍ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ (जीवात्‍मा) कहलाता है। ऐसी अवस्‍था में आत्‍मा का विनाश कैसे हो सकता है ? अथवा हेतुपूर्वक प्रकृति के अनुसार प्रवृत्‍त पंचमहाभूतों से उसका शाश्‍वत संसर्ग भी कैसे रह सकता है ? जैसे नद और नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नाम और व्‍यक्तित्‍व (रूप) को त्‍याग देती हैं तथा बडे-बडे नद छोटी-छोटी नदियों को अपने में विलीन कर लेते हैं, उसी प्रकार जीवात्‍मा परमात्‍मा मे विलीन हो जाता है । यही मोक्ष है। जीव के ब्रह्रा मे विलीन हो जानेपर उसके नामरूप का किसी प्रकार भी ग्रहण नहीं हो सकता । ऐसी दशा में मृत्‍यु के पश्‍चात् जीव की संज्ञा कैसे रहेगी ? जो इस मोक्ष विद्याको जानता है और सावधानी के साथ आत्‍मतत्‍व का अनुसंधान करता है, वह जल से कमल के पत्‍ते की भाँति अनिष्‍ट फलों से कभी लिप्‍त नहीं होता।किंतु संतानों के प्रति आसक्ति के कारण और भिन्‍न-भिन्‍न देवताओं की प्रसन्‍नता के लिये अज्ञानियो द्वारा जो सकाम कर्म किये जाते है, ये सब मनुष्‍य के लिये नाना प्रकार के सुदृढ़ बन्‍धन है । जब वह इन बन्‍धनों से छूटकर सुख-दु:ख की चिन्‍ता छोड़ देता है, उस समय सूक्ष्‍म शरीर के अभिमान का त्‍याग करके सर्वश्रेष्‍ठगति प्राप्‍त कर लेता हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ’ये दोनों ज्ञान अथवा अज्ञान के विषय नहीं होते, इस कथन का अभिप्राय यों समझना चाहिये –जो श्रवणकाल में शब्‍द का अनुभव करता है, वह उसके साथ ही श्रोत्र और आकाश का अनुभव नहीं करता है । साथ ही उसे इन दोनों का अज्ञान भी नहीं रहता; क्‍योंकि शब्‍द का श्रवणेन्द्रिय और आकाश दोनों से सम्‍बन्‍ध है । इन दोनों के बिना शब्‍द का अनुभव हो ही नहीं सकता।

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