महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 148 श्लोक 57-66
अष्टचत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाबाहु कमलनयन श्रीकृष्ण ने बचपन में ही अपने बन्धु-बान्धवों की रक्षा के लिये कंस का बड़ा भारी संहार किया था। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर! इन सनातन पुराणपुरुष श्रीकृष्ण के चरित्रों की कोई सीमा या संख्या नहीं बतायी जा सकती। तात! तुम्हारा तो अवश्य ही परम उत्तम कल्याण होगा, क्योंकि ये पुरुषसिंह जनार्दन तुम्हारे मित्र हैं। दुर्बुद्धि दुर्योधन यद्यपि परलोक में चला गया है, तो भी मुझे तो उसी के लिये अधिक शोक हो रहा है, क्योंकि उसी के कारण हाथी घोड़े आदि वाहनों सहित सारी पृथ्वी का नाश हुआ है। दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण और शकुनि- इन्हीं चारों के अपराध से सारे कौरव मारे गये हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! पुरुषप्रवर गंगानन्दन भीष्मजी के ऐसा कहने पर उन महामनस्वी पुरुषों के बीच में बैठे हुए कुरुकुलकुमार युधिष्ठिर चुप हो गये। भीष्मजी की बात सुनकर धृतराष्ट्र आदि राजाओं को बड़ा विस्मय हुआ और वे सभी मन-ही-मन श्रीकृष्ण की पूजा करते हुए उन्हें हाथ जोड़ने लगे। नारद आदि सम्पूर्ण महर्षि भी भीष्मजी के वचन सुनकर उनकी प्रशंसा करते हुए बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकार पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों के साथ यह भीष्मजी का सारा पवित्र अनुशासन सुना, जो अत्यन्त आश्चर्यजनक था। तदनन्तर बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं का दान करने वाले गंगानन्दन भीष्मजी जब विश्राम ले चुके, तब महाबुद्धिमान् राजा युधिष्ठिर पुनः प्रश्न करने लगे।
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