महाभारत शल्य पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-17

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द्वात्रिंश (32) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर के कहने से दुर्योधन का तालाब से बाहर होकर किसी एक पाण्डव के साथ गदा युद्ध के लिये तैयार होना

धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय ! शत्रुओं को संताप देने वाला मेरा वीर पुत्र राजा दुर्योधन स्वभाव से ही क्रोधी था। जब युधिष्ठिर ने उसे इस प्रकार फटकारा, तब उसकी कैसी दशा हुई ? उसने पहले कभी किसी तरह ऐसी फटकार नहीं सुनी थी; क्योंकि राजा होने के कारण वह सब लोगों के सम्मान का पात्र था । अभिमानी होने के कारण जिसके मन में अपने छत्र की छाया और सूर्य की प्रभा भी खेद ही उत्पन्न करती थी, वह ऐसी कठोर बातें कैसे सह सकता था ? संजय ! तुमने तो प्रत्यक्ष ही देखा था कि म्लेच्छों तथा जंगली जातियों सहित यह सारी पृथ्वी दुर्योधन की कृपा से ही जीवन धारण करती थी । इस समय वह अपने सेवकों से हीन हो चुका था और एकान्त स्थान में घिर गया था। उस दशा में विशेषतः पाण्डवों ने जब उसे वैसी कड़ी फटकार सुनायी, तब शत्रुओं के विजय से युक्त उन कटुवचनों को बारंबार सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों से क्या कहा ? यह मुझे बताओ। संजय ने कहा-राजाधिराज ! राजन् ! उस समय भाइयों सहित युधिष्ठिर ने जब इस प्रकार फटकारा, तब जल में खड़े हुए आपके पुत्र ने उन कठोर वचनों को सुनकर गरम-गरम लंबी सांस छोड़ी। राजा दुर्योधन विषम परिस्थिति में पड़ गया था और पानी में स्थित था; इसलिये बारंबार उच्छ्वास लेता रहा। उसने जल के भीतर ही अनेक बार दोनों हाथ हिलाकर मन ही मन युद्ध का निश्चय किया और राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- ‘तुम सभी पाण्डव अपने हितैषी मित्रों को साथ लेकर आये हो। तुम्हारे रथ और वाहन भी मौजूद हैं। मैं अकेला थका-मादा, रथहीन और वाहनशून्य हूं । ‘तुम्हारी संख्या अधिक है। तुमने रथ पर बैठ कर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र ले कर मुझे घेर रक्खा है। फिर तुम्हारे साथ मैं अकेला पैदल और अस्त्र-शस्त्रों से रहित होकर कैसे युद्ध कर सकता हूं ? ‘युधिष्ठिर ! तुम लोग एक एक करके मुझसे युद्ध करो। युद्ध में बहुत से वीरों के साथ किसी एक को लड़ने के लिये विवश करना न्यायोचित नहीं है । ‘विशेषतः उस दशा में जिसके शरीर पर कवच नहीं हो, जो थका मांदा, आपत्ति में पड़ा और अत्यन्त घायल हो तथा जिसके वाहन और सैनिक भी थक गये हों, उसे युद्ध के लिये विवश करना न्याय संगत नहीं है । ‘राजन् ! मुझे न तो तुमसे, ना कुन्ती के बेटे भीमसेन से, न अर्जुन से, न श्रीकृष्ण से अथवा पान्चालों से ही कोई भय है। नकुल सहदेव, सात्यकि तथा अन्य जो-जो तुम्हारे सैनिक हैं, उनसे भी मैं नहीं डरता। युद्ध में क्रोधपूर्वक स्थित होने पर मैं अकेला ही तुम सब लोगों को आगे बढ़ने से रोक दूंगा ।‘नरेश्वर ! साधु पुरुषों की कीर्ति का मूल कारण धर्म ही है। मैं यहां उस धर्म और कीर्ति का पालन करता हुआ ही यह बात कह रहा हूं । ‘मैं उठ कर रणभूमि में एक एक करके आये हुए तुम सब लोगों के साथ युद्ध करूंगा, ठीक उसी तरह, जैसे संवत्सर बारी बारी से आये हुए सम्पूर्ण ऋतुओं को ग्रहण करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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