महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 44-58
षट्षष्टयधिकद्विशततम (266) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
विलम्ब करने का स्वभाव होने के कारण चिरकारी इस प्रकार सोचता-विचारता रहा। इसी सोच-विचार में बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया । इतने में ही उसके पिता वन से लौट आये। महाज्ञानी तपोनिष्ठ मेधातिथि गौतम उस समय पत्नि के वध के अनौचित्य पर विचार करके अधिक संतप्त हो गये। वे दु:ख से आँसू बहाते हुए वेदाध्ययन और धैर्य के प्रभाव से किसी तरह अपने को सँभाले रहे और पश्चाताप करते हुए मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे- ‘अहो ! त्रिभुवन का स्वामी इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके मेरे आश्रम पर आया था। मैंने अतिथि सत्कार के गृहस्थोचित व्रत का आश्रय लेकर उसे मीठे वचनों द्वारा सान्तवना दी, उसका स्वागत-सत्कार किया और यथोचित रूप से अर्ध्य-पाद्य आदि निवेदन करके मैंने स्वयं ही उसकी विधिवत पूजा की। ‘मैंने विनयपूर्वक कहा –‘भगवान ! मैं आपके अधीन हूँ। आपके पदार्पण से मैं सनाथ हो गया ।' मुझे आशा थी कि मेरे इस सद्व्यवहार से संतुष्ट होकर अतिथिदेवता मुझसे प्रेम करेंगे; परंतु यहां इन्द्र की विषयलोलुपता के कारण दु:खद घटना घटित हो गयी । इसमें मेरी स्त्री का कोई अपराध नहीं। ‘इस प्रकार न तो स्त्री अपराधिनी है, न मैं अपराधी हॅूं और न एक पथिक ब्राह्मण के वेश में आया हुआ देवताओं का राज इन्द्र ही अपराधी है। मेरे द्वारा धर्म के विषय में स्त्रीवधरूप प्रमाद हुआ है, वही इस अपराध की जड़ है। ’ऊर्ध्वरेता मुनि उस प्रमाद के ही कारण ईर्ष्या जनित संकट की प्राप्ति बताते है; ईर्ष्या ने मुझें पाप के समुद्र में ढकेल दिया है और मैं उसमें डूब गया हूं। ‘जिसे मैंने पत्नि के रूप में अपने घर में आश्रय दिया था। जो एक सती-साध्वी नारी थी और भार्या होने के कारण मुझसे भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी थी, उसी का मैंने प्रमादरूपी व्यसन के वशीभूत होने के कारण वध करा डाला। अब इस पाप से मेरा कौन उद्धार करेगा ? ‘परंतु मैंने उदारबुद्धि चिरकारी को उसकी माता के वध के लिये आज्ञा दी थी। यदि उसने इस कार्य में विलम्ब करके अपने नाम को सार्थक किया हो तो वही मुझे स्त्रीहत्या के पाप से बचा सकता है। ‘बेटा चिरकारी ! तेरा कल्याण हो। चिरकारी ! तेरा मंगल हो। यदि आज भी तूने विलम्ब से कार्य करने के अपने स्वभाव का अनुसरण किया हो तभी तेरा चिरकारी नाम सफल हो सकता है। ‘बेटा ! आज विलम्ब करके तू वास्तव में चिरकारी बन और मेरी, अपनी माता की तथा मैंने जो तपका उपार्जन किया है, उसकी भी रक्षा कर। साथ ही अपने-आपको भी पातकों से बचा ले। ‘अत्यन्त वुद्धिमान होने के कारण तुझमें जो चिरकारिता का सहज गुण है, वह इस समय सफल हो। आज तू वास्तव में चिरकारी बन। ‘तेरी माता चिरकाल से तेरे जन्म की आशा लगाये बैठी थी। उसने चिरकाल तक तुझे गर्भ में धारण किया है, अत: बेटा चिरकारी ! आज तू अपनी माता की रक्षा करके चिरकारिता को सफल कर ले। ‘मेरा बेटा चिरकारी कोई दु:ख या संताप प्राप्त होने पर भी कार्य करने में विलम्ब करने का स्वभाव नहीं छोड़ता है। मना करने पर भी चिरकाल तक सोता रहता है। आज हम देानों माता-पिता चिरसंताप देखकर वह अवश्य चिरकारी बने'।
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