महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 25-42

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पन्चत्रिंश (35) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: पन्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 25-42 का हिन्दी अनुवाद


भारत ! विभिन्न देशों में लोग जिन वस्तुओं की इच्छा रखते थे, उन्हें वे ही दी जाती थीं। भूखों को भोजन कराने के लिये सर्वत्र अन्न का प्रबन्ध किया गया था । नरेश्वर ! जिस किसी देश में जो-जो ब्राह्मण जब कभी भोजन की इच्छा प्रकट करता, बलरामजी के सेवक उसे वहीं तत्काल खाने-पीने की वस्तुएं अर्पित करते थे । राजन् ! रोहिणी कुमार बलरामजी की आज्ञा से उनके सेवक विभिन्न तीर्थ स्थानों में खाने-पीने की वस्तुओं के ढेर लगाये रखते थे । सुख चाहने वाले ब्राह्मणों के सत्कार के लिये बहुमूल्य वस्त्र, पलंग और बिछौने तैयार रक्खे जाते थे । भारत ! जो ब्राह्मण जहां भी सोता या जागता था, वहां-वहां उसके लिये सारी आवश्यक वस्तुएं सदा प्रस्तुत दिखायी देती थीं । भरतश्रेष्ठ ! इस यात्रा में सब लोग सुखपूर्वक चलते और विश्राम करते थे। यात्री की इच्छा हो तो उसे सवारियां दी जाती थीं, प्यासे को पानी और भूखे को स्वादिष्ठ अन्न दिये जाते थे। साथ ही वहां बलरामजी के सेवक वस्त्र और आभूषण भी भेंट करते थे । वीर नरेश ! वहां यात्रा करने वाले सब लोगों को वह मार्ग स्वर्ग के समान सुखदायक प्रतीत होता था। उस मार्ग में सदा आनन्द रहता, स्वादिष्ठ भोजन मिलता और शुभ की ही प्राप्ति होती थी । उस पथ पर खरीदने-बेचने की वस्तुओं का बाजार भी साथ साथ चलता था, जिस में नाना प्रकार के सैकड़ों मनुष्य भरे रहते थे। वह हाट भांति-भांति के वृक्षों और लताओं से सुशोभित तथा अनेकानेक रत्नों से विभूषित दिखायी देता था । राजन् ! यदुकुल के प्रमुख वीर हलधारी महात्मा बलराम नियमपूर्वक रहकर प्रसन्नता के साथ पुण्यतीर्थो में ब्राह्मणों को धन और यज्ञ की दक्षिणाएं देते थे । बलराम ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को सहस्त्रों दूध देने वाली गौएं दान की, जिन्हें सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित करके उनके सींगों में सोने के पत्र जड़े गये थे। साथ ही उन्होंने अनेक देशों में उत्पन्न घोड़े, रथ और सुन्दर वेश-भूषा वाले दास भी ब्राह्मणों की सेवा में अर्पित किये। इतना ही नहीं, बलराम ने भांति-भांति के रत्न, मोती, मणि, मूंगा, उत्तम सुवर्ण, विशुद्ध चांदी तथा लोहे और तांबे के बर्तन भी बांटे थे । इस प्रकार उदार वृत्ति वाले अनुपम प्रभावशाली महात्मा बलराम ने सरस्वती के श्रेष्ठ तीर्थो में बहुत धन दान किया और क्रमशः यात्रा करते हुए वे कुरुक्षेत्र में आये। जनमेजय बोले-ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ और मनुष्यों में उत्तम ब्राह्मण देव ! अब आप मुझे सरस्वती तटवर्ती तीर्थो के गुण, प्रभाव और उत्पत्ति की कथा सुनाइये। भगवन् ! क्रमशः उन तीर्थो के सेवन का फल और जिस कर्म से वहां सिद्धि प्राप्त होती है, उसका अनुष्ठान भी बताइये, मेरे मन में यह सब सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। वैशम्पायनजी ने कहा-राजेन्द्र ! मैं तुम्हें तीर्थो के गुण, प्रभाव, उत्पत्ति तथा उनके सेवन का पुण्य फल बता रहा हूं। वह सब तुम ध्यान से सुनो । महाराज ! यदुकुल के प्रमुख वीर बलरामजी सबसे पहले ऋत्विजों, सुहृदों और ब्राह्मणों के साथ पुण्यमय प्रभास क्षेत्र में गये, जहां राजयक्ष्मा से कष्ट पाते हुए चन्द्रमा को शाप से छुटकारा मिला था। नरेन्द्र ! वे वहीं पुनः अपना तेज प्राप्त करके सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा को प्रभासित करने के कारण ही वह प्रधान तीर्थ इस पृथ्वी पर प्रभास नाम से विख्यात हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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