महाभारत शल्य पर्व अध्याय 36 श्लोक 40-55

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षट्त्रिंश (36) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 40-55 का हिन्दी अनुवाद


‘वे महान् तपस्वी हैं। यदि हम नहीं चलेंगे तो वे कुपित हो कर दूसरे देवताओं की सृष्टि कर लेंगे’ । बृहस्पतिजी का यह वचन सुनकर सब देवता एक साथ हो उस स्थान पर गये, जहां त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा था । वहां पहुंच कर देवताओं ने उस कूप को देखा, जिसमें त्रित मौजूद थे। साथ ही उन्होंने यज्ञ में दीक्षित हुए महात्मा त्रित मुनि का भी दर्शन किया। वे बड़े तेजस्वी दिखायी दे रहे थे। उन महाभाग मुनि का दर्शन करके देवताओं ने उनसे कहा-‘हम लोग यज्ञ में अपना भाग लेने के लिये आये हैं’ । उस समय महर्षि ने उनसे कहा-‘देवताओं ! देखो, में किस दशा में पड़ा हूं। इस भयानक कूप में गिर कर अपनी सुधबुध खो बैठा हूं’ । महाराज ! तदनन्तर त्रित ने देवताओं को विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए उन के भाग समर्पित किये। इससे वे उस समय बड़े प्रसन्न हुए । विधिपूर्वक प्राप्त हुए उन भागों को ग्रहण करके प्रसन्न चित्त हुए देवताओं ने उन्हें मनोवान्छित वर प्रदान किया । मुनि ने देवताओं से वर मांगते हुए कहा-‘मुझे इस कूप से आप लोग बचावें तथा जो मनुष्य इसमें आचमन करे, उसे यज्ञ में सोमपान करने वालों की गति प्राप्त हो’ । राजन् ! मुनि के इतना कहते ही कुएं में तरंगमालाओं से सुशोभित सरस्वती लहरा उठी। उसने अपने जल के वेग से मुनि को ऊपर उठा दिया और वे बाहर निकल आये। फिर उन्होंने देवताओं का पूजन किया । नरेश्वर ! मुनि के मांगे हुए वर के विषय में ‘तथास्तु’ कह कर सब देवता जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। फिर त्रित भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर को ही लौट गये । उन महातपस्वी ने कुपित हो अपने उन दोनों ऋषि भाइयों के पास पहुंच कर कठोर वाणी में शाप देते हुए कहा-‘तुम दोनों पशुओं के लोभ में फंस कर मुझे छोड़ कर भाग आये। इसलिये इसी पाप कर्म के कारण मेरे शाप से तुम दोनों भाई महाभयंकर भेडि़ये का शरीर धारण करके दांढ़ों से युक्त हो इधर-उधर भटकते फिरोगे। तुम दोनों की संतान के रूप में गोलांगूल, रीछ और वानर आदि पशुओं की उत्पत्ति होगी’ । प्रजानाथ ! उनके इतना कहते ही वे दोनों भाई उस सत्यवादी के वचन से उसी क्षण भेडि़ये की शकल में दिखायी देने लगे । अमित पराक्रमी बलरामजी ने उस तीर्थ में भी जल का स्पर्श किया और ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें नाना प्रकार के धन प्रदान किये । उदार चित्त वाले बलरामजी सरस्वती नदी के अन्तर्गत उदपान तीर्थ का दर्शन करके उसकी बारंबार स्तुति-प्रशंसा करते हुए वहां से विनशन तीर्थ में चले गये ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शल्य पर्व के अन्तर्गत गदापर्व में बलदेवजी की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में त्रित का उपाख्यान विषयक छत्तीसवां अध्याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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