श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-15

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प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः(4)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
महर्षि व्यास का असन्तोष


व्यासजी कहते हैं—उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्यावयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा । शौनकजी बोले—सूतजी! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं, जो कथा भगवान् श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान् की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ।वह कथा किस युग में, किस स्थान पर और किस कारण से हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था । उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेद भावरहित, संसार निद्रा से एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थिर रहते हैं। वे छिपे रहने के कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं । व्यासजी जब संन्यास के लिये वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नगें शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परंतु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन किये थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यासजी ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परंतु आपके पुत्र की शुद्धि दृष्टि में यह भेद नहीं है’ कुरुजांगल देश में पहुँचकर हस्तिनापुर में वे पागल, गूँगे तथा जड़ के समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना ? पाण्डव नन्दन राजर्षि परीक्षित् का इन मौनी शुकदेवजी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवत संहिता कही गयी ? महाभाग श्रीशुकदेवजी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थस्वरुप बना देने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं, जितनी देर में एक गाय दुही जाती है । सूतजी! हमने सुना है कि अभिमन्यु नन्दन परीक्षित् भगवान् के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मों का भी वर्णन कीजिये । वे तो पाण्डववंश के गौरव बढ़ाने वाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारण से साम्राज्य लक्ष्मी का परित्याग करके गंगा तट पर मृत्यु पर्यन्त अनशन का व्रत लेकर बैठे थे ? शत्रुगण अपने भले के लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखने की चौकी को नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मी को, अपने प्राणों के साथ भला, क्यों त्याग देने की इच्छा की । जिन लोगों का जीवन भगवान् के आश्रित है, वे तो संसार के परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धि के लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरों के हित के लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया । वेदवाणी को छोड़कर अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूतजी! इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा है, वह सब कृपा करके हैं कहिये । सूतजी कहते हैं—इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापर में महर्षि पराशर के द्वारा वसुकन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान् के कलावतार योगिराज व्यासजी का जन्म हुआ । एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थान पर बैठे हुए थे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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