श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 13-22
प्रथम स्कन्धः पञ्चम अध्यायः(4)
महाभाग व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यनारायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवों को बन्धन से मुक्त करने के लिये समाधि के द्वारा अचिन्त्य-शक्ति भगवान् की लीलाओं का स्मरण कीजिये । जो मनुष्य भगवान् की लीला के अतिरिक्त और कुछ कहने की इच्छा करता है, वह उस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर मीन पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभाव से भर जाती है। जैसे हवा के झकोरों से डगमगाती हुई डोंगी को कहीं भी ठहरने का ठौर नहीं मिलता, वैस ही उसी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती । संसारी लोग स्वभाव से ही विषयों फँसे हुए हैं। धर्म के नाम पर आपने उन्हें निन्दित (पशु हिंसा युक्त) सकाम कर्म करने की भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्ख लोग आपके वचनों से पूर्वोक्त निन्दित कर्म को ही धर्म मानकर—‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करने वाले वचनों को ठीक नहीं मानते । भगवान् अनन्त हैं। कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसार की ओर से निवृत्त होकर उनके स्वरुप भूत परमानन्द का अनुभव कर सकता है। अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धि से रहित हैं और गुणों के द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याण के लिये ही आप भगवान् की लीलाओं सर्वसाधारण के हित की दृष्टि से वर्णन कीजिये । जो मनुष्य अपने धर्म का परित्याग करके भगवान् के चरणकमलों का भजन-सेवन करता है—भजन परिपक्व हो जाने पर तो बात ही क्या है—यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमंगल हो सकता है ? परन्तु जो भगवान् का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्म का पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है । बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि वह उसी वस्तु की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करे, जो तिनके से लेकर ब्रम्हापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियों में कर्मों के फलस्वरूप आने-जाने पर भी स्वयं प्राप्त नहीं होती। संसार के विषय सुख तो, जैसे बिना चेष्टा के दुःख मिलते हैं वैसे ही, कर्म के फलरूप में अचिन्त्य गति समय के फेर से सबको सर्वत्र स्वभाव से ही मिल जाते हैं । व्यासजी! जो भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का सेवक है वह भजन न करने वाले कर्मी मनुष्यों के समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जाने पर भी जन्म-मृत्युमय संसार में नहीं आता। वह भगवान् के चरणकमलों के आलिंगन का स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रस का चसका जो लोग चुका है । जिनसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान् ही इस विश्व के रूप में भी हैं। ऐसा होने पर भी वे इससे विलक्षण हैं। इस बात को आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है । व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बात को जानिये कि आप पुरुषोत्तम-भगवान् के कलावतार हैं। आपने अजन्मा होकर भी जगत् के कल्याण के लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेष रूप से भगवान् की लीलाओं का कीर्तन कीजिये । विद्वानों ने इस बात का निरूपण किया है कि मनुष्य की तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दान का एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्ण के गुणों और लीलाओं का वर्णन किया जाय ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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