महाभारत शल्य पर्व अध्याय 38 श्लोक 43-53
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
मुनि को हर्ष के आवेश से अत्यन्त मतवाला हुआ देख महादेवजी ने ( ब्राह्मण का रूप धारण करके ) देवताओं के हित के लिये उनसे इस प्रकार कहा- ‘धर्मज्ञ ब्राह्मण ! आप किसलिये नृत्य कर रहे हैं ? मुने ! आपके लिये अधिक हर्ष का कौन सा कारण उपस्थित हो गया है ? द्विजश्रेष्ठ ! आप तो तपस्वी हैं, सदा धर्म के मार्ग पर स्थित रहते हैं, फिर आप क्यों हर्ष से उन्मत्त हो रहे हैं ?’ । ऋषि ने कहा-ब्रह्मन् ! क्या आप नहीं देखते कि मेरे हाथ से शाक का रस चू रहा है। प्रभो ! उसी को देखकर मैं महान् हर्ष से नाचने लगा हूं । यह सुनकर महादेवजी ठठा कर हंस पड़े और उन आसक्ति से मोहित हुए मुनि से बोले-‘विप्रवर ! मुझे तो यह देखकर विस्मय नहीं हो रहा है। मेरी ओर देखो’ । राजेन्द्र ! मुनिश्रेष्ठ मंकणक से ऐसा कहकर बुद्धिमान् महादेवजी ने अपनी अंगुलि के अग्रभाग से अंगूठे मे घाव कर दिया। उस घाव से बर्फ के समान सफेद भस्म झड़ने लगा ।। राजन् ! यह देखकर मुनि लजा गये और महादेवजी के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने महादेवजी को पहचान लिया और विस्मित होकर कहा- ‘भगवन् ! मैं रुद्रदेव के सिवा दूसरे किसी देवता को परम महान् नहीं मानता। आप ही देवताओं तथा असुरों सहित सम्पूर्ण जगत् के आश्रयभूत त्रिशूलधारी महादेव हैं । ‘मनीषी पुरुष कहते हैं कि आपने ही इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि की है। प्रलय के समय यह सारा जगत् आप में ही विलीन हो जाता है । इन्हीं ऋषियों की तपस्या से कल्पान्तर में दिति के गर्भ से उन्चास मरुद्रणों का आविर्भाव हुआ। ये ही दिति के उदर में एक गर्भ के रूप में प्रकट हुए, फिर इन्द्र के वज्र से कटकर उन्चास अमर शरीरों के रूप में उत्पन्न हुए-ऐसा समझना चाहिये। ‘सम्पूर्ण देवता भी आपको यथार्थ रूप से नहीं जान सकते, फिर मैं कैसे जान सकूंगा ? संसार में जो-जो पदार्थ स्थित हैं, वे सब आप में देखे जाते हैं । ‘अनघ ! ब्रह्मा आदि देवता आप वरदायक प्रभु की ही उपासना करते हैं। आप सर्वस्व रूप हैं। देवताओं के कर्ता और कारयिता भी आप ही हैं। आपके प्रसाद से ही सम्पूर्ण देवता यहां निर्भय हो आनन्द का अनुभव करते हैं ।
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