श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 31-39
प्रथम स्कन्धः षष्ठ अध्यायः(6)
एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर जब ब्रम्हा जगे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया । तभी से मैं भगवान् की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ। मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्ड रूप से चलता रहता है । भगवान् की दी हुई इस स्वर ब्रम्ह से विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ । जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरणकमल समस्त तीर्थों के उद्गम स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे ह्रदय में आकर दर्शन दे देते हैं । जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान् की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है । काम और लोभ की चोट से बार-बार घायल हुआ ह्रदय श्रीकृष्ण सेवा से जैसी प्रत्यक्ष शान्ति का अनुभव करता है, यम-नियम आदि योग मार्गों से वैसी शान्ति नहीं मिल सकती । व्यासजी! आप निष्पाप हैं। आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया ।
श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! देवर्षि नारद के व्यासजी के इस प्रकार कहकर जाने की अनुमति ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छन्द विचरण करने के लिये वे चल पड़े । अहा! ये देवर्षि नारद धन्य हैं; क्योंकि वे सारंगपाणि भगवान् की कीर्ति को अपनी वीणा पर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत् को भी आनन्दित करते रहते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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