महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 6
नवाधिकद्विशततम (209) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
देवेश्वर ! मैंने इसलिये आपका स्मरण किया है कि फिर मेरा जन्म न हो; अत: फिर कहता हूँ कि मेरे कर्म नष्ट हो जायॅ और मुझ पर किसी का ऋण बाकी न रह जाय। पूर्व जन्म में जिन कर्मो का मेरे द्वारा संचय किया गया हैं, वे सभी रोग मेरे शरीर में उपस्थित हो जायॅ । मैं सबसे उऋण होकर भगवान् विष्णु के परमधाम को जाना चाहता हूँ। श्रीभगवान् बोले – नारद ! मैं उस सौभाग्यशाली भक्तका हूँ और वह भक्त भी मेरा सनातन सखा है । मैं उसके लिये कभी अदृश्य नहीं होता और न वही कभी मेरी दृष्टि से ओझल होता है। साधक पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों को संयम में रखकर उन दसों इन्द्रियों को मन में विलीन करे। मन को अहंकार में, अहंकार को बुद्धि में और बुद्धि को आत्मा में लगावे। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को संयम में रखकर बुद्धि के द्वारा परात्पर परमात्मा का अनुभव करे कि यह परमेश्वर मेरा है और मैं इसका हूँ, तथा इसी ने इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है। स्वयं ही अपने-आपको परमात्मा के ध्यान में लगाकर निरन्तर उनका स्मरण करे, तदन्तर बुद्धि से भी परे परमात्मा को जानकर मनुष्य फिर इस संसार में जन्म नहीं लेता । जो मृत्युकाल आने पर इस प्रकार मेरा स्मरण करता है, वह पुरूष पहले का पापाचारी रहा हो तो भी परम गति को प्राप्त होता है। समस्त देहधारियों के परमात्मा तथा भक्तों के प्रति एकमात्र निष्ठा रखनेवाले उन सनातन भगवान् नारायण को नमस्कार है। यह दिव्य वैष्णवी – अनुस्मृति विद्या है । मनुष्य एकाग्रचित होकर सोते, जागते और स्वाध्याय करते समय जहाँ कहीं भी इसका जप करता रहे। पूर्णिमा, अमावास्या तथा विशेषत: द्वादशी तिथि को मेरे श्रद्धालु भक्तों को इसका श्रवण करावे। यदि कोई अंहकार का आश्रय लेकर यज्ञ, दान और तपरूप कर्म करे तो उकसा फल उसे मिलता है । परंतु वह आवागमन के चक्कर में डालनेवाला होता है। जो देवताओं और पितरों की पूजा, पाठ, होम और बलिवैश्वदेव करते तथा अग्नि में आहुति देते समय मेरा स्मरण करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। यज्ञ, दान और तप – ये मनीषी पुरूषों को पवित्र करनेवाले है; अत: यज्ञ, दान और तप का निष्काम भाव से अनुष्ठान करें। नारद ! जो मेरा भक्त श्रद्धापूर्वक मेरे लिये केवल नमस्कारमात्र बोल देता है, वह चाण्डाल ही क्यों न हो, उसे अक्षयलोक की प्राप्ति होती है। फिर जो साधक मन और इन्द्रियों को संयममें रखकर मेरेआश्रित हो श्रद्धा और विधि के साथ मेरी आराधना करते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं, इसमें तो कहना ही क्या है ? देवर्षे ! सारे कर्म और उनके फल आदि अन्तवाले है; परंतु मेरा भक्त अन्तवान् (विनाशशील) फल का उपभोग नहीं करता; अत: तुम सदा आलस्य रहित होकर मेरा ही ध्यान करो । इससे तुम्हें परम सिद्धि प्राप्त होगी और तुम मेरे परमधाम का दर्शन कर लोगे। जो धर्मापदेश के द्वारा अज्ञानी पुरूष को ज्ञान प्रदान करता है अथवा जो किसी को समूची पृथ्वी का दान कर देता है तो उस ज्ञानदान का फल इस पृथ्वीदान के बराबर ही माना जाता है।
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