महाभारत शल्य पर्व अध्याय 42 श्लोक 19-38
द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
उसकी ऐसी अवस्था देखकर मुनि ने उस महानदी से कहा-‘तुम बिना कोई विचार किये वसिष्ठ को मेरे पास ले आओ’ । विश्वामित्र की बात सुन कर और उनकी पापपूर्ण चेष्टा जान कर वसिष्ठ के भूतल पर विख्यात अनुपम प्रभाव को जानती हुई उस नदी ने उनके पास जाकर बुद्धिमान् विश्वामित्र ने जो कुछ कहा था, वह सब उन से कह सुनाया । वह दोनों के शाप से भयभीत हो बारंबार कांप रही थी। महान् शाप का चिन्तन करके विश्वामित्र ऋषि के डर से बहुत डर गयी थी । राजन् ! उसे दुर्बल, उदास और चिन्तामग्न देख मनुष्यों में श्रेष्ठ धर्मात्मा वसिष्ठ ने कहा । वसिष्ठ बोले-सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ! तुम शीघ्र गति से प्रवाहित होकर मुझे बहा ले चलो और अपनी रक्षा करो, अन्यथा विश्वामित्र तुम्हें शाप दे देंगे; इसलिये तुम कोई दूसरा विचार मन में न लाओ । कुरुनन्दन ! उन कृपाशील महर्षि का वह वचन सुन कर सरस्वती सोचने लगी, ‘क्या करने से शुभ होगा ?’ । उसके मन में यह विचार उठा कि ‘वसिष्ठ ने मुझ पर बड़ी भारी दया की है। अतः सदा मुझे इनका हित साधन करना चाहिये’ । राजन् ! तदनन्तर ऋषि श्रेष्ठ विश्वामित्र को अपने तट पर जप और होम करते देख सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने सोचा, यही अच्छा अवसर है, फिर तो उस नदी ने पूर्व तट को तोड़ कर उसे अपने वेग से बहाना आरम्भ किया । उस बहते हुए किनारे के साथ मित्रावरुण के पुत्र वसिष्ठजी भी बहने लगे। राजन् ! बहते समय वसिष्ठ जी सरस्वती की स्तुति करने लगे। ‘सरस्वती ! तुम पितामह ब्रह्माजी के सरोवर से प्रकट हुई हो, इसीलिये तुम्हारा नाम सरस्वती है। तुम्हारे उत्तम जल से ही यह सारा जगत् व्याप्त है । ‘देवी ! तुम्हीं आकाश में जाकर मेघों में जल की सृष्टि करती हो, तुम्हीं सम्पूर्ण जल हो; तुमसे ही हम ऋषिगण वेदों का अध्ययन करते हैं । ‘तुम्हीं पुष्टि, कीर्ति, द्यति, सिद्धि, बुद्धि, उमा, वाणी और स्वाहा हो। यह सारा जगत् तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं समस्त प्राणियों में चार प्रकार के रूप धारण करके निवास करती हो’ । राजन् ! महर्षि के मुख से इस प्रकार स्तुति सुनती हुई सरस्वती ने उन ब्रह्मर्षि को अपने वेग द्वारा विश्वामित्र के आश्रम पर पहुंचा दिया और विश्वामित्र से बारंबार निवेदन किया कि ‘वसिष्ठ मुनि उपस्थित हैं’ । सरस्वती द्वारा लाये हुए वसिष्ठ को देख कर विश्वामित्र कुपित हो उठे और उनके जीवन का अन्त कर देने के लिये कोई हथियार ढूंढ़ने लगे । उन्हें कुपित देख सरस्वती नदी ब्रह्म हत्या के भय से आलस्य छोड़ दोनों की आज्ञा का पालन करती हुई विश्वामित्र को धोखा देकर वसिष्ठ मुनि को पुनः पूर्व दिशा की ओर बहा ले गयी । परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी-यह चार प्रकार की वाणी ही सरस्वती का चतुर्विध रूप है। मुनि श्रेष्ठ वसिष्ठ को पुनः अपने से दूर बहाया गया देख अमर्षशील विश्वामित्र दुःख से अत्यन्त कुपित हो बोले-‘सरिताओं में श्रेष्ठ कल्याणमयी सरस्वती ! तुम मुझे धोखा देकर फिर चली गयी, इसलिये अब जल की जगह रक्त बहाओ, जो राक्षसों के समूह को अधिक प्रिय है ।
« पीछे | आगे » |