श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 17-31
प्रथम स्कन्धः नवम अध्यायः (9)
युधिष्ठिर! संसार की ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्छा के अधीन हैं। उसी का अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजा का पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करने में समर्थ हो । ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं। ये सबके आदिकारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी माया से लोगों को मोहित करते हुए ये यदुवंशियों में छिपकर लीला कर रहे हैं । इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर! उसे भगवान् शंकर, देवर्षि नारद और स्वयं भगवान् कपिल ही जानते हैं । जिन्हें तुम अपना ममेरा, भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत और सारथि तक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा हैं । इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहंकार-रहित और निष्पाप परमात्मा में उन ऊँचे-नीचे कार्यों के कारण कभी किसी प्रकार की विषमता नहीं होती । युधिष्ठिर! इस प्रकार सर्वत्र सम होने पर भी देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तों पर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समय में जबकि मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है । भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभाव से इनमें अपना मन लगाकर और वाणी से इनके नाम का कीर्तन करते हुए शरीर का त्याग करते हैं और कामनाओं से तथा कर के बन्धन से छूट जाते हैं । वे ही देवदेव भगवान् अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमल के समान औरन नेत्रों से उल्लासित मुखवाले चतुर्भुतरूप से, जिसका और लोगों को केवल ध्यान में दर्शन होता है, तब तक यही स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जब तक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें जब तक मैं इस शरीर का त्याग न कर दूँ । सूतजी कहते हैं—युधिष्ठिर ने उनकी यह बात सुनकर शरशय्या पर सोये हुए भीष्मपितामह से बहुत-से ऋषियों के सामने ही नाना प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध में अनेकों रहस्य पूछे । तब तत्वेत्ता भीष्मपितामह ने वर्ण और आश्रमों के अनुसार पुरुष के स्वाभाविक धर्म और वैराग्य तथा राग के कारण विभिन्न रूप से बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप द्विध धर्म, दान धर्म, राज धर्म, मोक्ष धर्म, स्त्री धर्म और भगद्धर्म—इन सबका अलग-अलग संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया। शौनकजी! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों का तथा इनकी प्राप्ति के साधनों का अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया । भीष्मपितामह इस प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुँचा जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखने वाले भगवत्परायण योगी लोग चाहा करते हैं । उस समय हजारों रथियों के नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मन को सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान् श्रीकृष्ण के सुन्दर चतुर्भुज विग्रह पर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजी की आँखें उसी पर एकटक लग गयीं । उनको शस्त्रों की चोट से जो पीड़ा हो रही थी वह तो भगवान् के दर्शनमात्र से ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान् की विशुद्ध धारणा से उनके जो कुछ अशुभ शेष थे वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोड़ने के समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों के वृत्तिविलास को रोक दिया और बड़े प्रेम से भगवान् की स्तुति की ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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