महाभारत शल्य पर्व अध्याय 48 श्लोक 42-61
अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
‘उस समय उसे परम पवित्र मनोहर एवं दिव्य कथाएं सुनायी देने लगीं। वह बिना खाये ही बेर पकाती और मंगलमयी कथाएं सुनती रही। इतने में ही बारह वर्षो की वह भयंकर अनावृष्टि समाप्त हो गयी। वह अत्यन्त दारुण समय उसके लिये एक दिन के समान व्यतीत हो गया । ‘तदनन्तर सप्तर्षिगण हिमालय पर्वत से फल लेकर वहां आये। उस समय भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर अरुन्धती से कहा-‘धर्मज्ञे ! अब तुम पहले के समान इन ऋषियों के पास जाओ ! धर्म को जानने वाली देवि ! मैं तुम्हारी तपस्या और नियम से बहुत प्रसन्न हूं’ । ‘ऐसा कह कर भगवान् शंकर ने अपने स्वरूप का दर्शन कराया और उन सप्तर्षियों से अरुन्धती के महान् चरित्र का वर्णन किया । ‘वे बोले-‘विप्रवरो ! आप लोगों ने हिमालय के शिखर पर रहकर जो तपस्या की है और अरुन्धती ने यही रह कर जो तप किया है, इन दोनों में कोई समानता नहीं है ( अरुन्धती का ही तप श्रेष्ठ है )।‘इस तपस्विनी ने बिना कुछ खाये-पीये बेर पकाते हुए बारह वर्ष बिता दिये हैं। इस प्रकार इसने दुष्कर तप का उपार्जन कर लिया है’ । ‘इसके बाद भगवान् शंकर ने पुनः अरुन्धती से कहा-‘कल्याणि ! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, उसके अनुसार कोई वर मांग लो’ । ‘तब विशाल एवं अरुण नेत्रों वाली अरुन्धती ने सप्तर्षियों की सभा में महादेवजी से कहा-‘भगवान् यदि मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह स्थान बदरपाचन नाम से प्रसिद्ध होकर सिद्धों और देवर्षियों का प्रिय एवं अदभुत तीर्थ हो जाय । ‘देवदेवेश्वर ! इस तीर्थ में तीन रात तक पवित्र भाव से रहकर वास करने से मनुष्य को बारह वर्षो के उपवास का फल प्राप्त हो’ । ‘तब महादेवजी ने उस तपस्विनी से कहा-‘एवमस्तु’ ( ऐसा ही हो )। फिर सप्तर्षियों ने उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् महादेवजी अपने लोक में चले गये । ‘अरुन्धती भूख-प्यास से युक्त होने पर भी न तो थकी थी और न उसकी अंगकान्ति ही फीकी पड़ी थी। उसे देखकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ । ‘कठोर व्रत का पालन करने वाली महाभागे ! इस प्रकार विशुद्ध हृदया अरुन्धती देवी ने यहां परम सिद्धि प्राप्त की थी, जैसी कि तुमने मेरे लिये तप करके सिद्धि पायी है। भद्रे ! तुमने इस व्रत में विशेष आत्मसमर्पण किया है । ‘सती कल्याणि ! मैं तुम्हारे नियम से संतुष्ट होकर यह विशेष वर प्रदान करता हूं । ‘कल्याणि ! महात्मा भगवान् शंकर ने अरुन्धती देवी को जो वर दिया था, तुम्हारे तेज और प्रभाव से मैं उससे भी बढ़कर उत्तम वर देता हूं ।‘जो इस तीर्थ में एकाग्रचित्त होकर एक रात निवास करेगा, वह यहां स्नान करके देह-त्याग के पश्चात् उन पुण्य लोकों में जायगा, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं’ । पुण्यमयी श्रुतावती से ऐसा कहकर सहस्त्र नेत्रधारी प्रतापी भगवान् इन्द्रदेव पुनः स्वर्गलोक में चले गये । राजन् ! भरतश्रेष्ठ ! वज्रधारी इन्द्र के चले जाने पर वहां पवित्र सुगन्ध वाले दिव्य पुष्पों की वर्षा होनी लगी और महान् शब्द करने वाली देवदुन्दुभियां बज उठीं ।
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