राणा
जंगबहादुर, राणा (१८१६-१८७७)
राणा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 335 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कमलनाथ गुप्त. |
नेपाल के प्रसिद्ध रक्षामंत्री भीमसिंह थापा के भ्रातृपौत्र। ये अपने पूर्वजों की अपेक्षा स्थायी शासन की स्थापना करने में सफल रहे। इन्हें अपने चाचा मातवरसिंह के मंत्रित्वकाल में सेनाध्यक्ष तथा प्रधान न्यायाधीश का पद सौंपा गया किंतु शीघ्र ही इनके चाचा की छलपूर्वक हत्या कर दी गई और फतेहजंग ने नया मंत्रिमंडल बनाया। इस नए मंत्रिमंडल में इन्हें सैन्य विभाग सौंपा गया। दूसरे वर्ष १८४६ ई. में शासन में एक संघर्ष छिड़ा। फलस्वरूप फतेहजंग और उनके साथ के ३२ अन्य प्रधान व्यक्तियों की कुटिलतापूर्वक हत्या कर दी गई। महारानी द्वारा राणा की नियुक्ति सीधे प्रधान मंत्री पद पर की गई। शीघ्र ही महारानी का विचार परिवर्तित हुआ और उनकी हत्या के षड्यंत्र भी रचे गए। परंतु रानी की योजना असफल रही। फलत: राजा और रानी दोनों को ही भारत में शरण लेनी पड़ी। अब राणा के मार्ग से सारी बाधाएँ परे हट चुकी थीं। शासन को व्यवस्थित और नियंत्रित करने में इन्हें पूर्ण सफलता मिली। यहाँ तक कि जनवरी, १८५० में वे निश्चिंत होकर इंग्लैंड गए और ६ फरवरी, १८५१ तक वहीं रहे। लौटने पर इन्होंने अपने विरुद्ध रची गई हत्या की कुटिल योजनाओं को पूर्णत: विफल कर दिया। इसके बाद आप दंडसंहिता के सुधार कार्यों में तथा तिब्बत के सथ होनेवाले छिटपुट संघर्षों में उलझे रहे। इसी बीच उन्हें भारतीय सिपाही विद्रोह की सूचना मिली। राणा ने विद्रोहियों से किस प्रकार की बातचीत का विरोध किया और जुलाई, १८५७ को सेना की एक टुकड़ी गोरखपुर भेजी। यही नहीं, दिसंबर में इन्होंने १४,००० गोरखा सिपाहियों की एक सेना लखनऊ की ओर भी भेजी थी जिसने ११ मार्च, १८५८ को लखनऊ की घेरेबंदी में सहयोग दिया। जंगबहादुर राणा को इस कार्य के लिए जी.बी.सी. (ग्रेट कमांडर ऑव ब्रिटेन) के पद से सम्मानित किया गया। नेपाल को उसका एक भूखंड लौटा दिया गया और अन्य अनेक सीमाविवादों का अंत कर दिया गा। १८७५ में राणा ने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया किंतु बंबई में घोड़े से गिर जाने पर घर लौट आए। ६१ वर्ष की अवस्था में २५ फरवरी को इनका देहांत हो गया। इनकी तीन विधवाएँ भी इनके सथ ही चिता को समर्पित हो गई।