श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 9-22
दशम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायः(15) (पूर्वार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावन को देखकर भगवान् श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गोवर्धन की तराई में, यमुनातट पर गौओं को चराते हुए अनेकों प्रकार की लीलायें करने लगे ॥ ९ ॥ एक ओर ग्वालबाल भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्रों की मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलरामजी के साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौंरों की सुरीली गुनगुनाहट में अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं ॥ १० ॥
कभी-कभी श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसों के साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए मोरों के साथ स्वयं भी ठुमुक-ठुमुक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूर को उपहासास्पद बना देते हैं । कभी मेघ के समान गम्भीर वाणी से दूर गये हुए पशुओं को उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेम से पुकारते हैं। उनके कण्ठ की मधुर ध्वनि सुनकर गायों और ग्वालबालों का चित्त भी अपने वश में नहीं रहता ॥ १२ ॥ कभी चकोर, क्रोंच (कराँकुल), चकवा, भरदूल और मोर आदि पक्षियों की-सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदि की गर्जना से डरे हुए जीवों के समान स्वयं भी भयभीतकी-सी लीला करते । जब बलरामजी खेलते-खेलते थककर किसी ग्वालबाल की गोद के तकिये पर सर रखकर लेट जाते, तब श्रीकृष्ण उसके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते और इस प्रकार अपने बड़े भाई की थकावट दूर करते । जब ग्वालबाल नाचने-लगते अथवा ताल ठोंक-ठोंककर एक-दूसरे से कुश्ती लड़ने लगते, तब श्याम और राम दोनों दोनों भाई हाथ में हाथ डालकर खड़े हो जाते और हँस-हँसकर ‘वाह-वाह’ करते । कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वालबालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्ष के नीचे कोमल पल्लवों की सेज पर किसी ग्वालबाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते । परीक्षित्! उस समय कोई-कोई पुण्य के मूर्तिमान् स्वरुप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अँगोछियों से पंखा झलने लगते । किसी-किसी के ह्रदय में प्रेम की धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे उदयशिरोमणि परममनस्वी श्रीकृष्ण की लीलाओं के अनुरूप उनके मन को प्रिय लगने वाले मनोहर गीत गाने लगता ॥ १८ ॥ भगवान् ने इस प्रकार अपनी योगमाया से अपने ऐश्वर्यमय स्वरुप को छिपा रखा था। वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठीक-ठाक गोपबालकों की-सी ही मालूम पड़तीं। स्वयं भगवती लक्ष्मी जिनके चरणकमलों की सेवा संलग्न रहती हैं, वे ही भगवान् इन ग्रामीण बालकों के साथ बड़े प्रेम से ग्रामीण खेल खेला करते थे। परीक्षित्! ऐसा होने पर भी कभी-कभी उनकी ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी प्रकट हो जाया करतीं ।
बलरामजी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप-बालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालों ने श्याम और राम से बड़े प्रेम के साथ कहा— ‘हमलोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी! आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वाभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़ के वृक्ष भरे पड़े हैं ॥ २१ ॥ वहाँ बहुत-से ताड़ के फल पक-पकाकर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहले के गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नाम का एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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