श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 10-20
दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः(16) (पूर्वार्ध)
भगवान् श्रीकृष्ण नागपाश में बँधकर निश्चेष्ट हो गये। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीड़ित हुए और उसी समय दुःख, पश्चाताप और भय से मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएँ—सब कुछ भगवान् श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था ।
गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दुःख से डकराने लगे। श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बँध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गये, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था ।
इधर व्रज में पृथ्वी, आकाश और शरीरों में बड़े भयंकर-भयंकर तीनों प्रकार के उत्पात उठ खड़े हुए, जो इस बात की सूचना दे रहे थे कि बहुत ही शीघ्र कोई अशुभ घटना घटने वाली है । नन्दबाबा आदि गोपों ने पहले तो उन अशकुनों को देखा और पीछे से यह जाना कि आज श्रीकृष्ण बिना बलराम के ही गाय चराने चले गये। वे भय से व्याकुल हो गये । वे भगवान् का प्रभाव नहीं जानते थे। इसलिये उन अशकुनों को देखकर उनके मन में यह बात आयी कि आज तो श्रीकृष्ण की मृत्यु ही हो गयी होगी। वे उसी क्ष दुःख, शोक और भय से आतुर हो गये। क्यों न हों, श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, अन और सर्वस्व जो थे । प्रिय परीक्षित्! व्रज के बालक, वृद्ध और स्त्रियों का स्वभाव गायों-जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था। वे मन में ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो गये और अपने प्यारे कन्हैया को देखने की उत्कट लालसा से घर-द्वार छोड़कर निकल पड़े । बलरामजी स्वयं भगवान् के स्वरुप और सर्वशक्तिमान् हैं। उन्होंने जब व्रजवासियों को इतना कातर और इतना आतुर देखा, तब उन्हें हँसी आ गयी। परन्तु वे कुछ बोले नहीं, चुप ही रहे। क्योंकि वे अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण का प्रभाव भलीभाँति जानते थे । व्रजवासी अपने प्यारे श्रीकृष्ण को ढूँढने लगे। कोई अधिक कठिनाई न हुई; क्योंकि मार्ग में उन्हें भगवान् के चरणचिन्ह मिलते जाते थे। जौ, कमल, अंकुश आदि से युक्त होने के कारण उन्हें पहचान होती जाती थी। इस प्रकार वे यमुना-तट की ओर जाने लगे ।
परीक्षित्! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिन्हों के बीच-बीच में भगवान् के चरणचिन्ह भी दीख जाते थे। उनमें कमल, जौ, अंकुश, व्रज और ध्वजा के चिन्ह बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रता से चले । उन्होंने दूर से ही देखा कि कालिय नाग के शरीर से बँधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं। कुण्ड के किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ, बैल, बछड़े आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं। यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्त में मुर्च्छित हो गये । गोपियों का मन अनन्त गुणगुणनिलय भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम के रंग में रँगा हुआ था। वे तो नित्य-निरन्तर भगवान् के सौहार्द, उनकी मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणी का ही स्मरण करती रहती थीं। जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँप ने जकड़ रखा है, तब तो उनके ह्रदय में बड़ा ही दुःख और बड़ी ही जलन हुई। अपने प्राणवल्लभ जीवनसर्वस्व के बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-