श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 27 श्लोक 1-10

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दशम स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः (27) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तविंशोऽध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्द्धन को धारण करके मूसलधार वर्षा से व्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु (बधाई देने के लिये) और स्वर्ग से देवराज इन्द्र (अपने अपराध को क्षमा कराने के लिये) आये । भगवान् का तिरस्कार करने के कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे। इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थान में भगवान् के पास जाकर अपने सूर्य के समान तेजस्वी मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श किया । परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्ण का प्रभाव देख-सुनकर इन्द्र का यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकों का स्वामी हूँ। अब उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ।

इन्द्र ने कहा—भगवान्! आपका स्वरुप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुण से रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्वमय है। यह गुणों के प्रवाहरूप से प्रतीत होने वाला प्रपंच केवल मायामय है; क्योंकि आपका स्वरुप न जानने के कारण ही आप में इसकी प्रतीति होती है । जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होने वाले देहादि से है ही नहीं, फिर उन देह आदि की प्राप्ति के कारण तथा उन्हीं से होने वाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आपमें हो ही कैसे सकते हैं ? प्रभो! इन दोषों का होना तो अज्ञान का लक्षण है। इस प्रकार यद्यपि अज्ञान और उससे होने वाले जगत् से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर ही धर्म की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये आप अवतार ग्रहण करते हैं और निग्रह-अनुग्रह भी करते हैं । आप जगत् के पिता, गुरु और स्वामी हैं। आप जगत् का नियन्त्रण करने के लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं। आप अपने भक्तों की लालसा पूर्ण करने के लिये स्वच्छन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान-मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं । प्रभो! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपने को जगत् का ईश्वर मानने वाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भय के अवसरों पर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषों के द्वारा सेवित भक्तिमार्ग का आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं। प्रभो! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टों के लिये दण्डविधान है । प्रभो! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है; क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभाव के सम्बन्ध में बिलकुल अनजान था। परमेश्वर! आप कृपा करके मुख मूर्ख अपराधी का यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञान का शिकार न होना पड़े । स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन्! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर-सेनापति केवल अपना पेट पालने में ही लग रहे हैं और पृथ्वी के लिये बड़े भारी भार के कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय और जो आपके चरणों के सेवक हैं—आज्ञाकारी भक्जन हैं, उनका अभ्युदय हो—उनकी रक्षा हो । भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं। आप यदुवंशियों के एकमात्र स्वामी, भक्तवत्सल एवं सबके चित्त को आकर्षित करने वाले हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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