श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 1-6

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दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शरद् ऋतु थी। उसके कारण बेला, चमेली आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँ-महँ महँक रहे थे। भगवान् ने चीरहरण के समय गोपियों को जिन रात्रियों का संकेत किया था, वे सब-की-सब पुंजीभूत होकर एक ही रात्रि के रूप में उल्लसित हो रही थीं। भगवान् ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया। गोपियाँ तो चाहती ही थीं। अब भगवान् ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रासक्रीडा करने का संकल्प किया। अमना होने पर भी उन्होंने अपने प्रेमियों की इच्छा पूर्ण करने के लिये मन स्वीकार किया । भगवान् के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राची दिशा के मुखमण्डल पर अपने शीतल किरणरुपी करकमलों से लालिमा की रोली-केसर मल दी, जैसे बहुत दिनों के बाद अपनी प्राणप्रिया पत्नी के पास आकर उसके प्रियतम पति ने उसे आनन्दित करने कल लिये ऐसा किया हो! इस प्रकार चन्द्रदेव ने उदय होकर न केवल पूर्वदिशा का, प्रत्युत संसार के समस्त चर-अचर प्राणियों का सन्ताप-जो दिन में शरत्कालीन प्रखर सूर्य-रश्मियों के कारण बढ़ गया था—दूर कर दिया ।

उस दिन चन्द्रदेव का मण्डल अखण्ड था। पूर्णिमा की रात्रि थी। वे नूतन केश के समान लाल-लाल हो रहे थे, कुछ संकोचमिश्रित अभिलाषा से युक्त जान पड़ते थे। उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजी के समान मालूम हो रहा था। उनकी कोमल किरणों से सारा वन अनुराग के रंग में रँग गया था। वन के कोने-कोने में उन्होंने अपनी चाँदनी के द्वारा अमृत का समुद्र उड़ेल दिया था। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य उज्जवल रस के उद्दीपन की पूरी सामग्री उन्हें और उस वन को देखकर अपनी बाँसुरी पर व्रजसुन्दरियों के मन को हरण करने वाली कामबीज ‘क्लीं’ की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी । भगवान् का यह वंशीवादन भगवान् के प्रेम को, उनके मिलन की लालसा को अत्यन्त उकसाने वाला—बढ़ाने वाला था। यों तो श्यामसुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन को अपने वश में कर रखा था। अब तो उनके मन की सारी वस्तुएँ—भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा आदि की वृत्तियाँ थी—छीन लीं। वंशीध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी। जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये, वे गोपियाँ भी एक-दुसरे से अपनी चेष्टा को छिपाकर जहाँ वे थे, वहाँ के लिये चल पड़ी। परीक्षित्! वे इतने वेग से चली थीं कि उनके कानों के कुण्डल झोंके खा रहे थे ।

वंशीध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोड़कर चल पड़ीं। जो चूल्हे पर दूध औटा रही थी, वे उफनता हुआ दूध छोड़कर और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोड़कर चल दीं । जो भोजन परस रहीं थीं वे परसना छोड़कर, जो छोटे-छोटे बच्चों को दूध पिटा रहीं थीं वे दूध पिलाना छोड़कर, जो पतियों की सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोड़कर और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोड़कर अपने कृष्णप्यारे के पास चल पड़ी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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