श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 41 श्लोक 16-25
दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः (41) (पूर्वार्ध)
यदुवंशशिरोमणे! आप देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। जगत् के स्वामी हैं। आपके गुण और लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी है। उत्तम पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करते रहते हैं। नारायण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।
श्रीभगवान् ने कहा—चाचाजी! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृद-स्वजनों का प्रिय करूँगा ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् के इस प्रकार कहने पर अक्रूरजी कुछ अनमने-से हो गये। उन्होंने पुरी में प्रवेश करके कंस से श्रीकृष्ण और बलराम के आने का समाचार निवेदन किया और फिर अपने घर गये । दूसरे दिन तीसरे पहर बलरामजी और ग्वालबालों के साथ भगवान् श्रीकृष्ण ने मथुरापुरी की देखने के लिये नगर में प्रवेश किया । भगवान् ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिकमणि (बिल्लौर) के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर (प्रधान दरवाजे) तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं। उनमें सोने के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे हैं और सोने के ही तोरण (बाहरी दरवाजे) बने हुए हैं। नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चहरदीवारी बनी हुई है। खाई के कारण और और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है। स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन (केवल स्त्रियों के उपयोग में आने वाले बगीचे) शोभायमान हैं । सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन (टाउनहाल) और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं। वैदूर्य, हीरे, स्फटिक (बिल्लौर), नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं। उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं। सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है। स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे (जौके अंकुर), खील और चावल बिखरे हुए हैं । घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं ।
परीक्षित्! वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने ग्वालबालों के साथ राजपथ से मथुरा नगरी में प्रवेश किया। उस समय नगर की नारियाँ बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखने के लिये झटपट अटारियों पर चढ़ गयीं । किसी-किसी ने जल्दी के कारण अपने वस्त्र और गहने पहन लिये। किसी ने भूल से कुण्डल, कंगन आदि जोड़ से पहने जाने वाले आभूषणों में से एक ही पहना और चल पड़ी। कोई एक ही कान में पत्र नामक आभूषण धारण कर पायी थी तो किसी ने एक ही पाँव में पायजेब पहन रखा था। कोई एक ही आँख में अंजन आँज पायी थी और दूसरी में बिना आँजे जी चल पड़ी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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