श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 45 श्लोक 1-14

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दशम स्कन्ध: पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः (45) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि माता-पिता को मेरे ऐश्वर्य का, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परन्तु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेह का सुख नहीं पा सकते—) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनों को मुग्ध रखकर उनकी लीला में सहायक होती है । यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजी के साथ अपने माँ-बाप के पास जाकर आदरपूर्वक और विनय से झुककर ‘मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!’ इन शब्दों से उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे— ‘पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोर-अवस्था का सुख हमसे नहीं पा सके । दुदैववश हमलोगों को आपके पास रहने का सौभाग्य ही नहीं मिला। इसी से बालकों को माता-पिता के घर में रहकर जो लाड़-प्यार का सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका । पिता और माता ही इस शरीर को जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्ष की प्राप्ति का साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक जीकर माता और पिता की सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता । जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बाप की शरीर और धन से सेवा नहीं करता, उसके मरने पर यमदूत उसे उसके अपने शरीर का मांस खिलाते हैं । जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राम्हण और शरणागत का भरण-पोषण नहीं करता—वह जीता हुआ भी मुर्दे के समान ही है! । पिताजी! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंस के भय से सदा उद्विग्नचित रहने कारण हम आपकी सेवा करने में असमर्थ रहे । मेरी माँ और मेरे पिताजी! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय! दुष्ट कंस ने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परन्तु हम परतन्त्र रहने के कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके’ ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अपनी लीला से मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरि की इस वाणी से मोहित हो देवकी-वसुदेव ने उन्हें गोद में उठा लिया और ह्रदय से चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया । राजन्! वे स्नेह-पाश से बँधकर पूर्णतः मोहित हो गये और आँसुओ की धारा से अभिषेक करने लगे। यहाँ तक कि आँसुओं के कारण गला रूँध जाने से वे कुछ बोल भी न सके ।

देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अपने माता-पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशियों का राजा बना दिया । और उनसे कहा—‘महाराज! हम आपकी प्रजा हैं। आप हम लोगों पर शासन कीजिये। राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राजसिंहसन पर नहीं बैठ सकते; (परन्तु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको दोष न होगा । जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।’ दूसरे नरपतियों के बारे में तो कहना ही क्या है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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