श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 45 श्लोक 15-28

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दशम स्कन्ध: पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः (45) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे विश्व के विधाता हैं। उन्होंने, जो कंस के भय से व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दशार्ह और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ-ढूँढ़कर बुलवाया। उन्हें घर से बाहर रहने में बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान् ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें ख़ूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा अपने-अपने घरों में बसा दिया । अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी के बाहुबल से सुरक्षित थे। उनकी कृपा से उन्हें किसी प्रकार की व्यथा नहीं थी, दुःख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरों में आनन्द से विहार करने लगे । भगवान् श्रीकृष्ण का वदन आनन्द का सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलाने वाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उस पर सदा नाचती रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्न रहते । मथुरा के वृद्ध पुरुष भी युवकों के समान अत्यन्त बलवान् और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रों के दोनों से बारंबार भगवान् के मुखारविन्द का अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे ।

प्रिय परीक्षित्! अब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबा के पास आये और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे— ‘पिताजी! अपने और माँ यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तान पर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं । जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण स्वजन-सम्बन्धियों ने त्याग दिया है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान लाड़-प्यार से पालते हैं, वे ही वास्तव में उनके माँ-बाप हैं । पिताजी! अब आप लोग व्रज में जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुःख होगा। यहाँ के सुह्रद्-सम्बन्धियों को सुखी करके हम आप लोगों से मिलने के लिये आयेंगे’। भगवान् श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों को इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदर के साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओं के बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया । भगवान् बात सुनकर नन्दबाबा ने प्रेम से अधीर होकर दोनों भाइयों को गले लगा लिया और फिर नेत्रों में आँसू भरकर गोपों के साथ व्रज के लिये प्रस्थान किया । हे राजन्! इसके बाद वसुदेवजी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राम्हणों से दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया । उन्होंने विविध प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से ब्राम्हणों का सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ों वाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गले में सोने की माला पहले हुए थीं तथा और भी बहुत से आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रों की मालाओं से विभूषित थीं । महामति वसुदेवजी ने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी के जन्म-नक्षत्र में जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंस ने अन्याय से छीन लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राम्हणों को वे फिर से दीं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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