श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 39-47

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दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 39-47 का हिन्दी अनुवाद

गोपियों ने कहा—उद्धवजी! यह बड़े सौभाग्य की और आनन्द की बात है कि यदुवंशियों को सताने वाला पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि श्रीकृष्ण के बन्धु-बान्धव और गुरुजनों के सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं ।

किन्तु उद्धवजी! एक बात आप हमें बतलाइये। ‘जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुसकान और उन्मुक्त चितवन से उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुरा की स्त्रियों से भी प्रेम करते हैं या नहीं ?’ ।

तब तक दूसरी गोपी बोल उठी—‘अरी सखी! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेम की मोहिनी कला के विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगर की स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भाव से उनकी ओर देखेंगी तब वे उनपर क्यों न रीझेंगे ?’ ।

दूसरी गोपियाँ बोलीं—‘साधो! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियों की मण्डली में कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वछन्दरूप से, बिना किसी संकोच के जब प्रेम की बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनों-की भी याद करते हैं ?’ ।

कुछ गोपियों ने कहा—‘उद्धवजी! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियों का स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्द के पुष्प खिले हुए थे, चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था! उन रात्रियों में ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हम लोगों के साथ नृत्य किया था। कितनी सुन्दर थी वह रासलीला! उस समय हम लोगों के पैरों के नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे। हम सब सखियाँ उन्हीं की सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का गान कर रही थीं और वे हमारे साथ नाना प्रकार के विहार कर रहे थे’ ।

कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठीं—‘उद्धवजी! हम सब तो उन्हीं के विरह को आग से जल रही हैं। देवराज इन्द्र जैसे जल बरसाकर वन को हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदि से हमें जीवनदान देने के लिये यहाँ आयेंगे ?’ ।

तबतक एक गोपी ने कहा—‘अरी सखी! अब तो उन्होंने शत्रुओं को मारकर राज्य पा लिया है; जिसे देखो, वही उनका सुहृद् बना फिरता है। अब वे बड़े-बड़े नरपतियों की कुमारियों से विवाह करेंगे, उनके साथ आनन्दपूर्वक रहेंगे, यहाँ हम गँवारिनो के पास क्यों आयेंगे ?’।

दूसरी गोपी ने कहा—‘नहीं सखी! महात्मा श्रीकृष्ण जो स्वयं लक्ष्मीपति हैं। उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य हैं। हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियों से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। हम लोगों के बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ।

देखो वेश्या होने पर भी पिंगलाने क्या ही ठीक कहा है—‘संसार में किसी की आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है।’ यह बात हम जानती हैं, फिर भी हम भगवान् श्रीकृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। उनके शुभागमन की आशा ही तो हमारा जीवन है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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