श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 49 श्लोक 26-31
दशम स्कन्ध: एकोनपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (49) (पूर्वार्ध)
राजा धृतराष्ट्र ने कहा—दानपते अक्रूरजी! आप मेरे कल्याण की, भले की बात कह रहे हैं, जैसे मरने वाले को अमृत मिल जाय तो वह कभी उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूँ ।
फिर भी हमारे हितैषी अक्रूरजी! मेरे चंचल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा ह्रदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही दशा आपके उपदेशों की है ।
अक्रूरजी! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधान में उलट-फेर कर सके। उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा । भगवान् की माया का मार्ग अचिन्त्य है। उसी माया के द्वारा इस संसार की सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलों का विभाजन कर देते हैं। इस संसार-चक्र की बरोक-टोक चाल में उनकी अचिन्त्य लीला-शक्ति के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभु को नमस्कार करता हूँ ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन-सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये । परीक्षित्! उन्होंने वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी के सामने धृतराष्ट्र का वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवों के साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजने का वास्तव में उद्देश्य भी यही था ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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