श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 13-28
दशम स्कन्ध: सप्तम अध्याय (पूर्वार्ध)
जो किसी के गुणों में दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमान रहित हैं—उस सत्यशील ब्राम्हणों का आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता । यह सोंचकर नन्दबाबा ने बालक को गोद में उठा लिया और ब्राम्हणों से साम, ऋक् और यजुर्वेद मन्त्रों द्वारा संस्कृत एवं पवित्र औषधियों से युक्त जल से अभिषेक कराया । उन्होंने बड़ी एकाग्रता से स्वस्तययनपाठ और हवन कराकर ब्राम्हणों को अति उत्तम अन्न का भोजन कराया । इसके बाद नन्दबाबा ने अपने पुत्र की उन्नति और अभिवृद्धि की कामना से ब्राम्हणों को सर्गुणसंपन्न बहुत-सी गौएँ दीं। वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोने के हारों से सजी हुई थीं। ब्राम्हणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया । यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राम्हण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता ।
एक दिन की बात है, सती यशोदाजी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलाह्र रहीं थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गये। वे उनका भार न सह सकीं । उन्होंने भार से पीड़ित होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया। इसके बाद उन्होंने भगवान् पुरुषोत्तम का स्मरण किया और घर के काम मन में लग गईं । तृणावर्त नाम का एक दैत्य था। वह कंस का निजी सेवक था। कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया । उसने व्रजरज से सारे गोकुल को ढक दिया और लोगों की देखने की शक्ति हर ली। उसके अत्यन्त भयंकर शब्द से दसों दिशाएँ काँप उठीं । सारा व्रज दो घड़ी तक रज और तमसे ढका रहा। यशोदाजी ने अपने पुत्र को जहाँ दिया था, वहाँ जाकर देखा तो श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे । उस समय तृणावर्त ने बवंडर रूप से इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्न और बेसुध हो गये थे। उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था । उस जोर की आँधी और धूल की वर्षा में अपने पुत्र का पता न पाकर यशोदा जी को बड़ा शोक हुआ। वे अपने पुत्र की याद करके बहुत ही दीन हों गयीं और बछड़े के मर जाने पर गाय की जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी। वे पृथ्वी पर गिर पड़ीं । बवंडर के शान्त होने पर जब धूल की वर्षा का वेग कम हो गया, तब यशोदाजी के रोने का शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं। नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को न देखकर उसने ह्रदय में भी बड़ा सन्ताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। वे फूट-फूटकर रोने लगीं इधर तृणावर्त बवंडररूप से जब भगवान् श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शान्त हो गया। वह अधिक चल न सका । तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशु को अपने से अलग नहीं कर सका ।भगवान् ने इतने जोर से उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया। उसकी आँखें बाहर निकल आयीं। बोलती बंद हो गयी। प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह व्रज में गिर पड़ा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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