श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 1-15

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प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः (18)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
महाराज परीक्षित् के द्वारा कलियुग का दमन


राजा परीक्षित् को श्रृंगी ऋषि का शाप सूतजी कहते हैं—अद्भुत कर्मा भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से राजा परीक्षित् अपनी माता की कोख में अश्वत्थामा के ब्रम्हास्त्र से जल जाने पर भी मरे नहीं । जिस समय ब्राम्हण के शाप से उन्हें डसने के लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राण नाश के महान् भय से भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर रखा था । उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गंगातट पर जाकर श्रीशुकदेवजी से उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान् के स्वरुप को जानकर अपने शरीर को त्याग दिया । जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण की लीला कथा कहते रहते हैं, उस कथामृत का पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनों के द्वारा उनके चरण-कमलों का स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकाल में भी मोह नहीं होता । जब तक पृथ्वी पर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित् सम्राट् रहे, तब तक चारों ओर व्याप्त हो जाने पर भी कलियुग का कुछ भी प्रभाव नहीं था । वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का परित्याग किया, उसी समय पृथ्वी में अधर्म का मूलकारण कलियुग आ गया था । भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित् कलियुग से कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें वह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो संकल्पमात्र से ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्म का फल शरीर से करने पर ही मिलता है; संकल्पमात्र से नहीं । ये भेड़िये के समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषों के लिये बड़ा भीरु है। वह प्रमादी मनुष्यों को अपने वश में करने के लिये ही सदा सावधान रहता है । शौनकादि ऋषियों! आप लोगों को मैंने भगवान् की कथा से युक्त राजा परीक्षित् का पवित्र चरित्र सुनाया। आप लोगों ने यही पूछा था । भगवान् श्रीकृष्ण कीर्तन करने योग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओं से सम्बन्ध रखने वाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषों को उन सबका सेवन करना चाहिये । ऋषियों ने कहा—सौम्यस्वभाव सूतजी! आप युग-युग जीयें; क्योंकि मृत्यु के प्रवाह में पड़े हुए हम लोगों को आप भगवान् श्रीकृष्ण की अमृतमयी उज्ज्वल कीर्ति का श्रवण कराते हैं । यज्ञ करते-करते उसके धुएँ से हम लोगों का शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्म का कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमान में ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं । भागवत्-प्रेमी भक्तों के लवमात्र के सत्संग से स्वर्ग एवं मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है । ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषों के एकमात्र जीवन सर्वस्व श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं से तृप्त ही जाय ? समस्त प्राकृत गुणों से का पार तो ब्रम्हा, शंकर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके । विद्वान्! आप भगवान् को ही अपने जीवन का ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय भगवान् के उदार और विशुद्ध चरित्रों का हम श्रद्धालु श्रोताओं के लिये विस्तार से वर्णन कीजिये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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