महाभारत शल्य पर्व अध्याय 54 श्लोक 1-20

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चतुष्पन्चाशत्तम (54) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: चतुष्पन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

प्लक्षप्रस्त्रवण आदि तीर्थो तथा सरस्वती की महिमा एवं नारदजी से कौरवों के विनाश और भीम तथा दुर्योधन के युद्ध का समाचार सुनकर बलरामजी का उसे देखने के लिये जाना

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! सात्वतवंशी बलरामजी कुरुक्षेत्र का दर्शन कर वहां बहुत सा धन दान करके उस स्थान से एक महान् एवं दिव्य आश्रम में गये । महुआ और आम के वन उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। पाकड़ और बरगद के वृक्ष वहां अपनी छाया फैला रहे थे। चिलबिल, कटहल और अर्जुन ( समूह ) के पेड़ चारों ओर भरे हुए थे। पुण्यदायक लक्षणों से युक्त उस पुण्यमय श्रेष्ठ आश्रम का दर्शन करके यादव श्रेष्ठ बलरामजी ने उन समस्त ऋषियों से पूछा कि ‘यह सुन्दर आश्रम किसका है ?’। राजन् ! तब वे सभी ऋषि महात्मा हलधर से बोले-‘बलरामजी ! पहले यह आश्रम जिसके अधिकार में था, उसकी कथा विस्तारपूर्वक सुनिये-‘प्राचीनकाल में यहां भगवान् विष्णु ने उत्तम तपस्या की है, यहीं उनके सभी सनातन यज्ञ विधिपूर्वक सम्पन्न हुए हैं ।। ‘यहीं कुमारावस्था से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाली एक सिद्ध ब्राह्मणी रहती थी, जो तपःसिद्ध तपस्विनी थी। वह योगयुक्त होकर स्वर्गलोक में चली गयी । ‘राजन् ! नियमपूर्वक व्रतधारण और ब्रह्मचर्य पालन करने वाली वह तेजस्विनी साध्वी महात्मा शाण्डिल्य की सुपुत्री थी । ‘स्त्रियों के लिये जो अत्यन्त दुष्कर था, ऐसा घोर तप करके देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित हुई वह महान् सौभाग्यशालिनी देवी स्वर्गलोक को चली गयी थी’ । ऋषियों का वचन सुनकर अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले बलरामजी उस आश्रम में गये। वहां हिमालय के पाश्र्व भाग में उन ऋषियों को प्रणाम करके संध्या-वन्दन आदि सब कार्य करने के अनन्तर वे हिमालय पर चढ़ने लगे । जिनकी ध्वजा पर ताल का चिन्ह सुशोभित होता है, वे बलरामजी उस पर्वत पर थोड़ी ही दूर गये थे कि उनकी दृष्टि एक पुण्यमय उत्तम तीर्थ पर पड़ी। वह सरस्वती की उत्पत्ति का स्थान प्लक्षप्रस्त्रवण नामक तीर्थ था। उसका दर्शन करके बलरामजी को बड़ा आश्चर्य हुआ । फिर वे कारपवन नामक उत्तम तीर्थ में गये। महाबली हलधर ने वहां के निर्मल, पवित्र और अत्यन्त शीतल पुण्यदायक जल में गोता लगाकर ब्राह्मणों को दान दे देवताओं और पितरों का तर्पण किया। तत्पश्चात् रणदुर्मद बलरामजी यतियों और ब्राह्मणों के साथ वहां एक रात रहकर मित्रावरुण के पवित्र आश्रम पर गये । जहां पूर्वकाल में इन्द्र, अग्नि और अर्यमा ने बड़ी प्रसन्नता प्राप्त की थी, वह स्थान यमुना के तट पर है। कारण्वन से उस तीर्थ में जाकर महाबली धर्मात्मा बलराम ने स्नान करके बड़ा हर्ष प्राप्त किया। फिर वे यदुपुंग व बलभद्र ऋषियों और सिद्धों के साथ बैठकर उत्तम कथाएं सुनने लगे । इस प्रकार वे लोग वहीं ठहरे हुए थे, तब तक देवर्षि भगवान् नारद भी उनके पास उसी स्थान पर आ पहुंचे, जहां बलरामजी विराजमान थे । राजन् ! महातपस्वी नारद जटामण्डल से मण्डित हो सुनहरा चीर धारण किये हुए थे। उन्होंने कमण्डलु, सोने का दण्ड तथा सुखदायक शब्द करने वाली कच्छपी नामक मनोरम वीणा भी ले रक्खी थी । वे नृत्य-गीत में कुशल, देवताओं तथा ब्राह्मणों से सम्मानित, कलह कराने वाले तथा सदैव कलह के प्रेमी हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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